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________________ मेरुस्तृणीकृतो मोहात् पयोधिर्गोष्पदीकृतः । गरिष्ठेभ्यो गरिष्ठो यैः, पाप्मभिस्त्वमपोहितः ॥२॥ हे नाथ ! इन्द्र आदि से भी महान् आपका जिन्होंने अनादर किया है उन्होंने प्रज्ञान से मेरु को तृण के समान समझा है और समुद्र को गाय खुर के समान माना है । (२) के च्युतश्चिन्तामणिः पाणे - स्तेषां लब्धा सुधा सुधा । यैस्त्वच्छासन सर्वस्व -मज्ञानैर्नात्मसात्कृतम् ॥३॥ जिन अज्ञानियों ने आपके शासन का सर्वस्व (धन) अपने अधीन नहीं किया, उनके हाथ से चिन्तामरिण रत्न गिर पड़ा है और प्राप्त हुआ मृत व्यर्थ गया है । (३) यस्त्वय्यपि दधौ दृष्टि -मुल्मुकाकारधारिणीम् । तमाशुशुक्षणिः साक्षा - दालप्यालमिदं हि वा ॥४॥ हे भगवन् ! आपके लिये भी जो मनुष्य जलते उल्मुक के आकार को धारण करने वाली दृष्टि रखते हैं उन्हें प्राक्षात् अग्नि जला डाले अथवा ऐसा वचन नहीं कहना ही उत्तम है । (४) त्वच्छासनस्य साम्यं ये, मन्यन्ते शासनान्तरैः । विषेण तुल्यं पीयूषं तेषां हन्त ! हतात्मनाम् ॥५॥ हे नाथ ! खेद की बात है कि जो आपके शासन को अन्य शासनों के समान मानते हैं उन अज्ञानियों के लिये अमृत भी विष के समान है । (५) अनेडमूका भूयासु -स्ते येषां त्वयि शुभोदय वैकल्य -मपि पापेषु हे नाथ ! जिन्हें आपके प्रति ईर्षा है वे बहरे और गंगे हो जायें, क्योंकि पर- निन्दा का श्रवण एवं उच्चारण आदि पाप-कार्यों में इन्द्रियों की रहितता शुभ परिणाम के लिये ही है, अर्थात् कान एवं जीभ के अभाव में आपकी निन्दा का श्रवण एवं उच्चारण नहीं कर सकने से वे दुर्गति में नहीं जायेंगे, यह उन्हें भविष्य में महान् लाभ है । (६) जिन भक्ति ] Jain Education International मत्सरः । कर्मसु || ६ || For Private & Personal Use Only [ 97 www.jainelibrary.org
SR No.002534
Book TitleJina Bhakti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1989
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size5 MB
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