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दसवां प्रकाश
मत्प्रसत्तेस्त्वत्प्रसादस्त्वत्प्रसादादियं पुनः ।
इत्यन्योन्याश्रय भिन्धि, प्रसीद भगवन् ! मयि ॥१॥ हे भगवन् मेरी प्रसन्नता से आपकी प्रसन्नता और आपकी प्रसन्नता से मेरी प्रसन्नता इस प्रकार के अन्योन्याश्रय दोष का आप भेदन करें और मुझ पर प्रसन्न हों। (१)
निरीक्षितु रूपलक्ष्मी, सहस्राक्षोऽपि न क्षमः ।
स्वामिन् ! सहस्रजिह्वोऽपि, शक्तो वक्तुन ते गुणान् ॥२॥ हे स्वामी ! आपके रूप की शोभा निहारने के लिये हजार नेत्रों वाला (इन्द्र) भी समर्थ नहीं है तथा आपका गण-गान करने के लिये हजार जीभ वाला (शेष नाग) भी समर्थ नहीं है। (२)
संशयान् नाथ ! हरसेऽनुत्तरस्वगिरणामपि ।
अतः परोऽपि कि कोऽपि, गुरणः स्तुत्योऽस्ति वस्तुतः ॥३॥ हे नाथ ! आप यहां हैं तो भी अनुत्तर विमान-वासी देवताओं के संशय दूर करते हैं । अतः अन्य कोई भी गुण वस्तुतः परमार्थ से स्तुति करने योग्य है ? अर्थात् नहीं है । (३)
इदं विरुद्ध श्रद्धतां, कथमश्रद्दधानकः ! ।
प्रानन्दं सुखसक्तिश्च, विरक्तिश्च समं त्वयि ॥४॥ अखण्ड अानन्द स्वरूप सुख में आसक्ति एवं सकल संग से विरक्ति ये दो विपरीत बातें आपमें एक साथ विद्यमान हैं। अश्रद्धालु मनुष्य इस , बात की श्रद्धा कैसे करें ? (४) ।
नाथेयं घट्यमानापि, दुर्घटा घटताँ कथम् ? ।
उपेक्षा सर्वसत्त्वेषु, परमा चोपकारिता ॥५॥ हे नाथ ! समस्त प्राणियों से उपेक्षा (राग-द्वष-रहितता) और परमोपकारिता (सम्यग् दर्शन आदि मोक्ष मार्ग की उपदेशकता) ये दो बातें आप में प्रत्यक्ष प्रतीत होती होने से घटित, फिर भी अन्य देवों में अघटित हो सकती है ? (५)
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[ जिन भक्ति
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