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अदेहस्य जगत्सर्ग, प्रवृत्तिरपि नोचिता ।
न च प्रयोजनं किंचित्, स्वातन्त्र्या(च्या)न्न पराज्ञया ॥२॥ देह रहित के लिये जगत् का सृजन करने की प्रवृत्ति भी उचित नहीं है, कृतकृत्य होने से सजन करने का कोई प्रयोजन नहीं है और स्वतन्त्र होने से दूसरे की आज्ञा पर भी चलना नहीं है । (२)
क्रीडया चेत्प्रवर्तेत, रागवान स्यात कुमारवत ।
कृपयाऽथ सृजेत्तहि, सुख्येव सकलं सृजेत् ॥३॥ क्रीडा के लिये यदि प्रवृत्त हो तो बालक की तरह रागी सिद्ध होगा और यदि कृपा से करे तो समस्त जगत् को सुखी ही करे। (३)
दुःखदौर्गत्यदुर्योनि -जन्मादिक्लेशविह्वलम् ।
जनं तु सृजतस्तस्य, कृपालोः का कृपालुता ? ॥४॥ दुःख, दुर्गति और दुष्ट योनियों में जन्म आदि के क्लेश से विह्वल जगत् का सृजन करने वाले उस कृपालु की कृपा कहां रही ? (४)
कर्मापेक्षः स चेहि, न स्वतन्त्रोऽस्मदादिवत् ।
कर्मजन्ये च वैचित्र्ये, किमनेन शिखण्डिना? ॥५।। दुःख आदि देने में यदि वह प्राणियों के कर्म की अपेक्षा रखता है तो वह हमारी-तुम्हारी तरह स्वतन्त्र नहीं है, यही सिद्ध होता है और जगत् की विचित्रता यदि कर्म - जनित है तो शिखण्डी की तरह उसको बीच में लाने की भी क्या आवश्यकता है ? (५)
अथ स्वभावतो वृत्ति -रविता महेशितुः ।
परीक्षकाणां तोष, परीक्षाक्षेपडिण्डिमः ॥६॥
और यदि महेश्वर की यह प्रवृत्ति स्वभाव से ही है किन्तु तर्क करने योग्य नहीं है, इस प्रकार कहोगे तो वह परीक्षकों को परीक्षा करने का निषेध करने के लिये ढोल बजाने के समान है । (६)
सर्वभावेषु कर्तृत्व, ज्ञातृत्वं यदि सम्मतम् । मतं नः सन्ति सर्वज्ञा, मुक्ताः कायभृतोऽपि च ॥७॥
जिन भक्ति ]
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