________________
PAUMACARIU
विशालभाललोलपूर्णमानकज्जलोज्ज्वलालकतिरेफमालिकोपशोभिते। विबुद्धहावमुद्धचारुपक्ष्मलालसभ्रमत्सुतारदीर्घनेत्रपत्रसुन्दरे ॥ अमन्दकुन्दकुडमलानकोमलोल्लसद्युतीद्धशुद्धदन्तपडितकेसरालये। प्रियामुखाम्बुजेऽधरं चिराय मध्विवापिबन्ननारतं भवेदनङगशेखरः ।।
Ch. p. 19b, I. 12-13. (6) भुअङगविलासो तस्सेअ (सुद्धसहावस्स)
वासहरम्मि वरे कसणाअरुडड्ढिअधूवसुअंधमणोहरए कमणीए। पीणघणुण्णअचक्कलथोरथणीअ स परिपेल्लिअवच्छअलो रमणीए । कोमलबाहुकलआदढवेंढिअओ पडिवट्टसुणेत्तविअंसिअए सअणीए। पावइ णिद्दिअअं हिअइच्छिअअं सहि जो चिअ पुण्णजुओ स णरो रअणीए ।।
SC. I 173. पीनघनोन्नतवृत्तविशालतरस्तनमण्डलगाढनिपीडनकण्टकिताङगः ।। कोमलषड्जमृणाललतादृढवेष्टितकण्ठतट: परिचुम्बनविभ्रमपात्रम् ।। वासगृहे बहलोच्चलितागुरुधूमलतानिचिते शयने मृदुनि क्षणदायां । यो दयितां रमयत्यतिसंभ्रममानजुषं स भुजङगविलासधुरामिह धत्ते ।।
Ch. p. 20b, I. 1-3. (7) Echoes from Sc. I 29 are found in Ch. p. 21b, st. 31. (8) अवदुवहउ अज्जदेवस्स
काइं करउं हउं माए। पिउ ण गणइ लग्गी पाए । मण्णु धरन्ते हो जाइ। कढिण उत्तरङग भणाइ॥ SC. IV 13. एत्थु करिमि भणि काइं। प्रिउ न गणइ लग्गी पाइ ॥
छड्डे विणु हउं मुक्की । अवदोहय जिम्व किर गावि ॥ Ch. VI 19, 45. (9) बीअचलणे मत्तबालिआ गोइन्दस्स--
कमलकुमुअह एक्क उप्पत्ति। ससि तो वि कुमआअरह । देइ सोक्ख कमलह दिवाअर ॥ पाविज्जइ अवस फलु । जेण जस्स पासे ठवेइउ॥ SC. IV 17. कुमुअकमलहं एक्क उप्पत्ति मउलेइ तु वि कमलवणु । कुमुअसंडु निच्चु वि विआसइ ।'
सच्छन्दविआरिणिय । चंदजोण्ह कि मत्तवालिआ॥ Ch. V 18, 18. The last two lines of the stanza in Ch. are different. ( 10 ) वाआला फरुसा विन्धणा । गुणेहिं विमुक्का पाणहरा ॥
जिह दूज्जण सज्जणउवरि । तिह पसरु ण लहन्ति सरा॥ Sc. VI 150. वायाला फरुसा विधणा
प्राणहर ॥ जह दुज्जण सज्जणजणउवरि । तेम्व पसरु न लहंति सर ॥ Ch. VI 21, 118. (11) किर कण्णकलिङग परिज्जिआ। ठिअ णवर माणविवज्जिआ ॥
गहुँ कोवि अहिट्ठइ मुणिअवहे । कहिं धरइ जअद्दह कण्ह कहे ॥ SC. VI 152. कृवकण्णकलिङग परज्जिआ। ठिअ नरवइ माणविवज्जिआ॥
नहु कोइ अभिट्टइ अणिअवहि । कहिं वइरि जयद्दहु कण्ह कहि ॥ Ch. VI 20, 116. (12) मत्तकरिणी जहा तसेअ (गोइन्दस्स)--
सव्व गोविउ जइबि जोस्एइ हरि सुठुवि आअरेण । देइ दिक्ठि जहिं कहिं वि राही ।। को सक्कइ संवरेवि । डढ्ढणअण णेहें पलोट्टउ। एक्कमेक्कउ जइबि जोएदि। हरि दुठ्ठ सव्वाअरेण । तो वि रोहिं जहि कहि वि राही।। को सक्कइ संवरेवि । दढ्ढणअण णेहें पलुट्टा ॥
Hemacandra's Prakrit Grammar IV 422 (6).
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org