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INTRODUCTION
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110. Sandhi, last Kadavaka, Ghatta and colophon. 82. सव्वु सुयङगु णाणु जिण-अक्खिउ, भव्व-सह रि किं-पि ण रक्खिउ।
णिय-जसुकित्ति तिलोएँ पयासिउ जिह सयम्भु-जिणे चिरु आहासिउ॥ 83. इय रिट्ठणेमिचरिए धवलइयासिय-सयम्भुएव-उव्वरिए।
तिहुवण-सयम्भु-कइणा समाणियं दहसयं सग्गं । 84. एक्को सयम्भु-विउसो तहो पुत्तो णाम तिहुयण-सयम्भू ।
को वण्णिउं समत्थो पिउ-भर-णिव्वहण-एक्कमणो।।
111. Sandhi, last Kadavaka, Ghattā & colophon. 85. तेतीस-सहस-वरिसे असणं गिण्हन्ति माणसे सुच्छं।
तेत्तिय पक्खुस्सासं जसफित्ति-विहूसिय-सरीरे । 86. इय रिट्ठणेमिचरिए धवलइयासिय-सयम्भुएव-उव्वरिए। .
तिहुवण-सयम्भु-रइए णेमिणिव्वाणं पण्डसुयतिण्णं ।।। 112. Sandhi, last Kadavaka, and the colophon of the work 87. इह भारह-पुराणु सुपसिद्धउ मिचरिय-हरिवंसाइद्धउ ॥१
वीर-जिणेसें भवियहो अक्खिउ पच्छइँ गोयमसामिण रक्खिउ ॥ २ सोहम्में पुणु जम्बूसामें विण्हुकुमार दिगय-गामें ॥ ३ णन्दिमित्त-अवरज्जियणाहें गोवद्धणेण सु-भद्दह (?) वाहें ।। ४ एम परम्पराइँ (इ) अणुलग्गउ आयरियह मुहाउ आवग्गउ ॥ ५ सुणि संखेव-सुत्तु अवहारिउ विउसे सयम्भ महि-वित्थारिउ ॥ ६ पद्धडिया-छन्दै सु-मणोहरु भवियण-जण-मण-सवण-सुहङकरु ॥ ७ जस-परिसेसि-कविहिं जं सुण्णउ तं तिहुवण-सयम्भु-किउ पुण्णउ ॥८ तासु पुत्ते पिउ-भर णिवाहिउ पिय-जसु णिय-जसु भुवणे पसाहिउ ॥९ गय तिहुयण-सयम्भु सुर-ठाणहो जं उव्वरिउ किं-पि सुणियाणहो । १० तं जसकित्ति-मुणिहि उद्धरियउ णिऍवि सुत्तु हरिवंसच्छरियउ॥ ११ णिय-गुरु-सिरि-गुणकित्ति-पसाएं किउ परिपुण्णु मणहों अणुराएं ॥१२ सरहसेणेदं (?)-सेठि-आएसें कुमर-णयरि आविउ स-विसेसें ॥१३ गोवगिरिहें समीवेविसालएँ पणियारहें जिणवर-चेयालएँ।१४ सावय-जणहों पुरउ वक्खाणिउ दिदु मिच्छत्तु मोहु अवमाणिउ ॥ १५ जं अ-मुणन्तें इह मइँ साहिउ तं सुयदेवि खमउ अवराहउ ॥ १६ णन्दउ सासणु सम्मइ-णाहहों गन्दउ भवियण कय-उच्छाहहों ।। १७ णन्दण (उ) णरवइ पय पालन्तहोणन्दउ दय-धम्मु वि अरहन्तहों ॥ १८ कालम्वि (णि) य णिच्च परिसक्कउ कासु वि धणु कणु दिन्तु ण थक्कउ॥ १९ भद्दव-मासि विणासिय-भवकलि हुउ परिपुण्णु चउद्दसि णिम्मलि ॥२०
॥घत्ता ॥ इय चउविह-सङ्घहँ विहणिय-विग्घहुँ
णिण्णासिय-भव-जर-मरण ॥ २१ जसकित्ति-पयासणु अखलिय-सासणु पयडउ सन्ति सयम्भु जिणु ।। २२ 88. इय रिट्ठणेमिचरिए धवलइयासिय-सयम्भुएव-उव्वरिए।
तिहुवण-सयम्भु रइए समाणियं कण्ह-कित्ति-हरिवंसं ।। गुरु-पव्व-वास भयं सुय-णाणाणुक्क जहा-जायं ।
सयमिक्क-दुद्दह-अहियं संधीओ परिसमत्ताओ ।। संधि ११२ ॥ 89. इति हरिवंशपुराणं समाप्तं।
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