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________________ ४२ ज्ञानबिन्दुपरिचय- केवल ज्ञान के अस्तित्व की साधक युक्ति वर्णनकारी साहित्ययुग में ग्रन्थकार पुरानी आध्यात्मिक बातों का तार्किक वर्णन तो करते थे पर आध्यात्मिक अनुभव का युग बीत चुका था । दूसरी बात विचारणीय यह है कि योगभाष्य, मज्झिमनिकाय और विशेषावश्यकभाष्य में पाया जाने वाला ऐकमत्य स्वतंत्र चिन्तन का परिणाम है या किसी एक का दसरे पर असर भी है। जैन वाङ्मय में अवधि और मनःपर्याय के संबन्ध में जो कुछ वर्णन है उस सब का उपयोग कर के उपाध्यायजी ने ज्ञानबिन्दु में उन दोनों ज्ञानों का ऐसा सुपरिष्कृत लक्षण किया है और लक्षणगत प्रत्येक विशेषण का ऐसा बुद्धिगम्य प्रयोजन बतलाया है जो अन्य किसी ग्रन्थ में पाया नहीं जाता । उपाध्यायजी ने लक्षणविचार तो उक्त दोनों ज्ञानों के भेद को मान कर ही किया है, पर साथ ही उन्हों ने उक्त दोनों ज्ञानों का भेद न मानने वाली सिद्धसेन दिवाकर की दृष्टि का समर्थन भी [६५५-५६] बड़े मार्मिक ढंगसे किया है। ४. केवल ज्ञान की चर्चा [६५७] अवधि और मनःपर्याय ज्ञान की चर्चा समाप्त करने के बाद उपाध्यायजी ने केवल ज्ञान की चर्चा शुरू की है, जो ग्रन्थ के अन्त तक चली जाती है और ग्रन्थ की समाप्ति के साथ ही पूर्ण होती है। प्रस्तुत ग्रन्थ में अन्य ज्ञानों की अपेक्षा केवल ज्ञान की ही चर्चा अधिक विस्तृत है । मति आदि चार पूर्ववर्ती ज्ञानों की चर्चाने ग्रन्थ का जितना भाग रोका है उस से कुछ कम दूना ग्रन्थ-भाग अकेले केवल ज्ञान की चर्चाने रोका है। इस चर्चा में जिन अनेक प्रेमेयों पर उपाध्यायजी ने विचार किया है उन में से नीचे लिखे विचारों पर यहाँ कुछ विचार प्रदर्शित करना इष्ट है (१) केवल ज्ञान के अस्तित्व की साधक युक्ति । (२) केवल ज्ञान के स्वरूप का परिष्कृत लक्षण । (३) केवल ज्ञान के उत्पादक कारणों का प्रश्न । (४) रागादि दोषों के ज्ञानावारकत्व तथा कर्मजन्यत्व का प्रश्न । (५) नैरात्म्यभावना का निरास । (६) ब्रह्मज्ञान का निरास । (७) श्रुति और स्मृतियों का जैन मतानुकूल व्याख्यान । (८) कुछ ज्ञातव्य जैन मन्तव्यों का कथन । (९) केवल ज्ञान और केवल दर्शन के क्रम तथा भेदाभेद के संबंध में पूर्वाचार्यों के पक्षभेद । (१०) ग्रन्थकार का तात्पर्य तथा उन की स्वोपज्ञ विचारणा । (१) केवल ज्ञान के अस्तित्व की साधक युक्ति [५८] भारतीय तत्त्वचिन्तकों में जो आध्यात्मिक-शक्तिवादी हैं, उन में भी आध्यात्मिकशक्तिजन्य ज्ञान के बारे में संपूर्ण ऐकमत्य नहीं । आध्यात्मिकशक्तिजन्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002518
Book TitleGyanbindu Prakarana
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1942
Total Pages244
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size13 MB
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