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ज्ञानबिन्दुपरिचय - अवधि और मनःपर्याय की चर्चा
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व्यवहित और विप्रकृष्ट मूर्त पदार्थों का साक्षात्कार कर सके । मनःपर्याय प्रत्यक्ष वह है जो मात्र मनोगत विविध अवस्थाओं का साक्षात्कार करे । इन दो प्रत्यक्षों का जैन वाङ्मय में बहुत विस्तार और भेद-प्रभेद वाला मनोरञ्जक वर्णन है ।
वैदिक दर्शन के अनेक ग्रन्थों में- खास कर 'पातञ्जलयोगसूत्र' और उस के भाष्य आदि में - उपर्युक्त दोनों प्रकार के प्रत्यक्ष का योगविभूतिरूप से स्पष्ट और आकर्षक वर्णन है' | 'वैशेषिकसूत्र' के 'प्रशस्तपादभाष्य' में भी थोडा-सा किन्तु स्पष्ट वर्णन है । बौद्ध दर्शन के 'मज्झिमनिकाय' जैसे पुराने ग्रन्थों में भी वैसे आध्यात्मिक प्रत्यक्ष का स्पष्ट वर्णन है । जैन परंपरा में पाया जाने वाला 'अवधिज्ञान' शब्द तो जैनेतर परंपराओं में देखा नहीं जाता पर जैन परंपरा का 'मनःपर्याय' शब्द तो 'परचित्तज्ञान" या "परचित्तविजानना' जैसे सदृशरूप में अन्यत्र देखा जाता है । उक्त दो ज्ञानों की दर्शनान्तरीय तुलना इस प्रकार है
१. जैन
२. वैदिक
३. बौद्ध
१ अवधि
वैशेषिक १ वियुक्त योगिप्रत्यक्ष
अथवा
युञ्जानयोगिप्रत्यक्ष
पातञ्जल १ भुवनज्ञान, ताराव्यूहज्ञान,
ध्रुवगतिज्ञान आदि २ परचित्तज्ञान
२ मनः पर्याय
मनःपर्याय ज्ञान का विषय मन के द्वारा चिन्त्यमान वस्तु है या चिन्तनप्रवृत्त मनोद्रव्य की अवस्थाएँ हैँ – इस विषय में जैन परंपरा में ऐकमत्य नहीं । निर्युक्ति और तस्वार्थसूत्र एवं तवार्थसूत्रीय व्याख्याओं में पहला पक्ष वर्णित है; जब कि विशेषावश्यकभाष्य में दूसरे पक्ष का समर्थन किया गया है । परंतु योगभाष्य तथा मज्झिमनिकाय में जो परचित्त ज्ञान का वर्णन है उस में केवल दूसरा ही पक्ष है जिस का समर्थन जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण ने किया है । योगभाष्यकार तथा मज्झिमनिकायकार स्पष्ट शब्दों में यही कहते हैं कि ऐसे प्रत्यक्ष के द्वारा दूसरों के चित्त का ही साक्षात्कार होता है, चित्त के आलम्बन का नहीं । योगभाष्य में तो चित्त के आलम्बन का ग्रहण हो न सकने के पक्ष में दलीलें भी दी गई हैं ।
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यहाँ विचारणीय बातें दो हैं - एक तो यह कि मनःपर्याय ज्ञान के विषय के बारे में जो जैन वाङ्मय में दो पक्ष देखे जाते हैं, इस का स्पष्ट अर्थ क्या यह नहीं है कि पिछले
२ परचित्तज्ञान, चेतः परिज्ञान
१ देखो, योगसूत्र विभूतिपाद, सूत्र १९.२६ इत्यादि । २ देखो, कंदलीटीका सहित प्रशस्तपादभाष्य, पृ० ३ देखो, मज्झिमनिकाय, सुत्त ६ । ४ " प्रत्ययस्य परचित्तज्ञानम् " - योगसूत्र ३.१९ । ५ देखो, अभिधम्मत्थसंगहो, ९.२४ । ६ देखो, प्रमाणमीमांसा, भाषाटिप्पण पृ० ३७; तथा ज्ञानबिन्दु, टिप्पण पृ० १०७ । 6
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