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________________ ज्ञान बिन्दु परिचय - मतिज्ञान के विशेष निरूपण में नया ऊहापोह ३ पाली अभिधर्म, १ न्यायवैशेषिकादि वैदिक दर्शन २ जैन दर्शन. तथा महायानी बौद्ध दर्शन, १ सन्निकृष्यमाण इन्द्रिय या विषयेन्द्रियसन्निकर्ष २ निर्विकल्पक ३ संशय तथा संभावना ४ सविकल्पक निर्णय ५ धारावाहि ज्ञान तथा संस्कार - स्मरण १ व्यजनावग्रह २ अर्थावग्रह ३ ईहा ४ अवाय ५ धारणा Jain Education International १ आरम्मण का इन्द्रियआपाथगमन - इन्द्रिय आलम्बन संबंध तथा आवज्जन २ चक्षुरादिविज्ञान ३ संपटिच्छन, संतीरण ४ वोपन ५ जवन तथा जवनानुबन्ध तदारम्मणपाक ३९ ( २ ) [ ९३८ ] प्रामाण्यनिश्चय के उपाय के बारे में ऊहापोह करते समय उपाध्यायजी ने मलयगिरि सूरि के मत की खास तौर से समीक्षा की है । मलयगिरि सूरि का मन्तव्य है कि अवायगत प्रामाण्य का निर्णय अवाय की पूर्ववर्तिनी ईहा से ही होता है, चाहे वह ईहा लक्षित हो या न हो । इस मत पर उपाध्यायजी ने आपत्ति उठा कर कहा है, [ ३९ ] कि अगर ईहा से ही अवाय के प्रामाण्य का निर्णय माना जाय तो वादिदेवसूरि का प्रामाण्यनिर्णयविषयक स्वतस्त्व - परतस्त्व का पृथक्करण कभी घट नहीं सकेगा । मलयगिरि के मत की समीक्षा में उपाध्यायजी ने बहुत सूक्ष्म कोटिक्रम उपस्थित किया है । उपाध्यायजी जैसा व्यक्ति, जो मलयगिरि सूरि आदि जैसे पूर्वाचायों के प्रति बहुत ही आदरशील एवं उन के अनुगामी हैं, वे उन पूर्वाचार्यों के मत की खुले दिल से समालोचना करके सूचित करते हैं, कि विचार के शुद्धीकरण एवं सत्यगवेषणा के पथ में अविचारी अनुसरण बाधक ही होता है । । (३) [१४० ] उपाध्यायजी को प्रसंगवश अनेकान्त दृष्टि से प्रामाण्य के स्वतस्त्व-परतस्त्व निर्णय की व्यवस्था करनी इष्ट है । इस उद्देश की सिद्धि के लिए उन्हों ने दो एकान्तवादी पक्षकारों को चुना है जो परस्पर विरुद्ध मन्तव्य वाले हैं मीमांसक मानता है कि प्रामाण्य की सिद्धि स्वतः ही होती है; तब नैयायिक कहता है कि प्रामाण्य की सिद्धि परतः ही होती है । उपाध्यायजी ने पहले तो मीमांसक के मुख से स्वतः प्रामाण्य का ही स्थापन कराया है; और पीछे उस का खण्डन नैयायिक के मुख से करा कर उस के द्वारा स्थापित कराया है कि प्रामाण्य की सिद्धि परतः ही होती है । मीमांसक और नैयायिक की परस्पर खण्डन- मण्डन वाली प्रस्तुत प्रामाण्यसिद्धिविषयक चर्चा प्रामाण्य के खास 'तद्वति तत्प्रकारकत्वरूप' दार्शनिकसंमत प्रकार पर ही कराई गई है । इस के पहले उपाध्यायजी ने सैद्धान्तिकसंगत और तार्किकसंमत ऐसे अनेकविध प्रामाण्य के प्रकारों को एक एक कर के चर्चा के लिए चुना है और अन्त में बतलाया है, कि ये सब प्रकार The Psychological attitude of early Buddhist Philosophy : By Anagarika B. Govinda : P. 184 अभिधम्मत्थसंगहो, ४.८ । २ देखो, नन्दीसूत्र की टीका, पृ० ७३ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002518
Book TitleGyanbindu Prakarana
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1942
Total Pages244
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size13 MB
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