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३८ ज्ञानबिन्दुपरिचय - मतिज्ञान के विशेष निरूपण में नया ऊहापोह साथमें उन्हों ने कुछ नया ऊहापोह भी अपनी ओर से किया है। यहाँ हम ऐसी तीन खास बातों का निर्देश करते हैं जिन पर उपाध्यायजीने नया ऊहापोह किया है
(१) प्रत्यक्ष ज्ञान की प्रक्रिया में दार्शनिकों का ऐकमत्य। .... (२) प्रामाण्यनिश्चय के उपाय का प्रश्न । (३) अनेकान्त दृष्टि से प्रामाण्य के स्वतस्त्व-परतस्त्व की व्यवस्था ।
(१) प्रत्यक्ष ज्ञान की प्रक्रिया में शब्दभेद भले ही हो पर विचारभेद किसी का नहीं है। न्याय-वैशेषिक आदि सभी वैदिक दार्शनिक तथा बौद्ध दार्शनिक भी यही मानते हैं कि जहाँ इन्द्रियजन्य और मनोजन्य प्रत्यक्ष ज्ञान होता है वहाँ सब से पहले विषय आर इन्द्रिय का सन्निकर्ष होता है। फिर निर्विकल्पक ज्ञान, अनन्तर सविकल्पक ज्ञान उत्पन्न होता है जो कि संस्कार द्वारा स्मृति को भी पैदा करता है। कभी कभी सविकल्पक ज्ञान धारारूपसे पुनः पुनः हुआ करता है। प्रत्यक्ष ज्ञान की प्रक्रिया का यह सामान्य क्रम है । इसी प्रक्रिया को जैन तत्त्वज्ञों ने अपनी व्यञ्जनावग्रह, अर्थावग्रह, ईहा, अवाय
और धारणा की खास परिभाषा में बहुत पुराने समय से बतलाया है । उपाध्यायजी ने इस ज्ञानबिन्दु में, परंपरागत जैनप्रक्रिया में खास कर के दो विषयों पर प्रकाश डाला है। पहला है कार्यकारण-भाव का परिष्कार और दूसरा है दर्शनान्तरीय परिभाषा के साथ जैन परिभाषाकी तुलना । अर्थावग्रह के प्रति व्यञ्जनावग्रह की, और ईहा के प्रति अर्थावग्रह की और इसी क्रम से आगे धारणा के प्रति अवाय की कारणता का वर्णन तो जैन वाङ्मय में पुराना ही है, पर नव्य न्यायशास्त्रीय परिशीलन ने उपाध्यायजी से उस कार्यकारण-भाव का प्रस्तुत ज्ञानबिन्दु में सपरिष्कार वर्णन कराया है, जो कि अन्य किसी जैनग्रन्थ में पाया नहीं जाता । न्याय आदि दर्शनों में प्रत्यक्ष ज्ञान की प्रक्रिया चार अंशों में विभक्त है। [६३६] पहला कारणांश [पृ० १० पं० २०] जो संनिकृष्ट इन्द्रियरूप है। दूसरा व्यापारांश [६४६] जो सन्निकर्ष एवं निर्विकल्प ज्ञानरूप है । तीसरा फलांश [पृ० १५. पं० १६.] जो सविकल्पक ज्ञान या निश्चयरूप है और चौथा परिपाकांश [४७] जो धारावाही ज्ञानरूप तथा संस्कार, स्मरण आदि रूप है । उपाध्यायजी ने व्यञ्जनावग्रह, अर्थावग्रह आदि पुरातन जैन परिभाषाओं को उक्त चार अंशों में विभाजित कर के स्पष्टरूप से सूचना की है कि जैनेतर दर्शनों में प्रत्यक्ष ज्ञान की जो प्रक्रिया है वही शब्दान्तर से जैनदर्शन में भी है। उपाध्यायजी व्यञ्जनावग्रहको कारणांश, अर्थावग्रह तथा ईहाको व्यापारांश, अवायको फलांश और धारणा को परिपाकांश कहते हैं, जो बिलकुल उपयुक्त है।
बौद्ध दर्शन के महायानीय 'न्यायबिन्दु' आदि जैसे संस्कृत ग्रन्थों में पाई जानेवाली, प्रत्यक्ष ज्ञान की प्रक्रियागत परिभाषा, तो न्यायदर्शन जैसी ही है; पर हीनयानीय पाली प्रन्थों की परिभाषा भिन्न है। यद्यपि पाली वाङ्मय उपाध्यायजी को सुलभ न था फिर भी उन्हों ने जिस तुलना की सूचना की है, उस तुलना को, इस समय सुलभ पाली वाङ्मय तक विस्तृत कर के, हम यहां सभी भारतीय दर्शनों की उक्त परिभाषागत तुलना बतलाते हैं।
१ देखो, प्रमाणमीमांसा टिप्पण, पृ० ४५ ।
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