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ज्ञानबिन्दुपरिचय-- चतुर्विध वाक्यार्थज्ञान का इतिहास नियुक्ति में अनुगम शब्द से जो व्याख्यान विधि का समावेश हुआ है वह व्याख्यानविधि भी वस्तुतः बहुत पुराने समय की एक शास्त्रीय प्रक्रिया रही है। हम जब आर्य परंपरा के उपलब्ध विविध वाङ्मय तथा उन की पाठशैली को देखते हैं तब इस अनुगम की प्राचीनता और भी ध्यान में आ जाती है । आर्य परंपरा की एक शाखा जरथोस्ट्रियन को देखते हैं तब उस में भी पवित्र माने जानेवाले अवेस्ता आदि ग्रन्थों का प्रथम विशुद्ध उच्चार कैसे करना, किस तरह पद आदि का विभाग करना इत्यादि क्रम से व्याख्याविधि देखते हैं। भारतीय आर्य परंपरा की वैदिक शाखा में जो वैदिक मत्रों का पाठ सिखाया जाता है और क्रमशः जो उस की अर्थविधि बतलाई गई है उस की जैन परंपरा में प्रसिद्ध अनुगम के साथ तुलना करें तो इस बात में कोई संदेह ही नहीं रहता कि यह अनुगमविधि वस्तुतः वही है जो जरथोस्थियन धर्म में तथा वैदिक धर्म में भी प्रचलित थी और आज भी प्रचलित है। जैन और वैदिक परंपरा की पाठ तथा अर्थविधि विषयक तुलना१. वैदिक
२. जैन १ संहितापाठ (मंत्रपाठ)
१ संहिता (मूळसूत्रपाठ) १ २ पदच्छेद (जिसमें पद, क्रम, जटा
२ पद २ आदि आठ प्रकार की विविधानुपूर्विओं का समावेश है) ३ पदार्थज्ञान
३ पदार्थ ३, पदविग्रह ४ ४ वाक्यार्थज्ञान
४ चालना ५ ५ तात्पर्यार्थनिर्णय
५ प्रत्यवस्थान ६ जैसे वैदिक परंपरा में शुरू में मूल मंत्र को शुद्ध तथा अस्खलित रूप में सिखाया जाता है; अनन्तर उन के पदों का विविध विश्लेषण; इस के बाद जब अर्थविचारणा-मीमांसा का समय आता है तब क्रमशः प्रत्येक पद के अर्थ का ज्ञान; फिर पूरे वाक्य का अर्थ ज्ञान और अन्त में साधक-बाधकचर्चापूर्वक तात्पर्यार्थ का निर्णय कराया जाता हैवैसे ही जैन परंपरा में भी कमसे कम नियुक्ति के प्राचीन समय में सूत्रपाठ से अर्थनिर्णय तक का वही क्रम प्रचलित था जो अनुगम शब्द से जैन परंपरा में व्यवहृत हुआ । अनुगम के छह विभाग जो अनुयोगद्वारसूत्र में हैं उन का परंपराप्राप्त वर्णन जिनभद्र क्षमाश्रमण ने विस्तार से किया है । संघदास गणिने "बृहत्कल्पभाष्य' में उन छह विभागों के वर्णन के अलावा मतान्तर से पाँच विभागों का भी निर्देश किया है। जो कुछ हो; इतना तो निश्चित है कि जैन परंपरा में सूत्र और अर्थ सिखाने के संबन्ध में एक निश्चित व्याख्यानविधि चिरकाल से प्रचलित रही । इसी व्याख्यानविधि को आचार्य हरिभद्र ने अपने दार्शनिक ज्ञान के नये प्रकाश में कुछ नवीन शब्दों में नवीनता के साथ
१ देखो, अनुयोगद्वारसूत्र सू० १५५ पृ० २६१। ३ देखो, बृहत्कल्पभाष्य गा० ३०२ से।
२ देखो, विशेषावश्यकभाष्य गा० १००२ से।
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