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ज्ञानबिन्दुपरिचय - चतुर्विध वाक्यार्थज्ञान का इतिहास यहाँ पर वाचक उमास्वाति के समय के विषय में विचार करने वालों के लिये ध्यान में लेने योग्य एक वस्तु है । वह यह कि वाचकश्री ने जब मति ज्ञान के अन्य सब प्रकार वर्णित किये हैं। तब उन्हों ने श्रुतनिश्रित और अश्रुतनिश्रित का अपने भाष्य तक में उल्लेख नहीं किया । स्वयं वाचकश्री, जैसा कि आचार्य हेमचन्द्र कहते हैं, यथार्थ में उत्कृष्ट संग्राहक हैं । अगर उन के सामने मौजूदा 'नन्दीसूत्र' होता तो वे श्रुतनिश्रित और अश्रुतनिश्रित का कहीं न कहीं संग्रह करने से शायद ही चूकते । अश्रुतनिश्रित के औत्पत्तिकी वैनयिकी आदि जिन चार बुद्धियों का तथा उन के मनोरंजक दृष्टान्तों का वर्णन पहले से पाया जाता है, उन को अपने ग्रन्थ में कहीं न कहीं संगृहीत करने के लोभ का उमास्वाति शायद ही संवरण करते । एक तरफ से, वाचकश्री ने कहीं भी अक्षर-अनक्षर आदि नियुक्तिनिर्दिष्ट श्रुतभेदों का संग्रह नहीं किया है; और दूसरी तरफ से, कहीं भी नन्दीवर्णित श्रुतनिश्रित और अश्रुतनिश्रित मतिभेद का संग्रह नहीं किया है । जब कि उत्तरवर्ती विशेषावश्यकभाष्य में दोनों प्रकार का संग्रह तथा वर्णन देखा जाता है । यह वस्तुस्थिति सूचित करती है कि शायद वाचक उमास्वाति का समय, नियुक्ति के उस भाग की रचना के समय से तथा नन्दी की रचना के समय से कुछ न कुछ पूर्ववर्ती हो । अस्तु, जो कुछ हो पर उपाध्यायजी ने तो ज्ञानबिन्दु में श्रुत से मति का पार्थक्य बतलाते समय नन्दी में वर्णित तथा विशेषावश्यकभाष्य में व्याख्यात श्रुतनिश्रित और अश्रुतनिश्रित दोनों भेदों की तात्त्विक समीक्षा कर दी है।
(३) चतुर्विध वाक्यार्थ ज्ञान का इतिहास [६२०-२६ ] उपाध्यायजी ने एक दीर्घ श्रुतोपयोग कैसे मानना यह दिखाने के लिए चार प्रकार के वाक्यार्थ ज्ञान की मनोरंजक और बोधप्रद चर्चा की है, और उसे विशेष रूपसे जानने के लिए आचार्य हरिभद्र कृत 'उपदेश पद' आदि का हवाला भी दिया है । यहाँ प्रश्न यह है कि ये चार प्रकार के वाक्यार्थ क्या हैं और उन का विचार कितना पुराना है और वह किस प्रकार से जैन वाङ्मय में प्रचलित रहा है तथा विकास प्राप्त करता आया है। इस का जबाब हमें प्राचीन और प्राचीनतर वाङ्मय देखने से मिल जाता है।
जैन परंपरा में 'अनुगम' शब्द प्रसिद्ध है जिसका अर्थ है व्याख्यानविधि । अनुगम के छह प्रकार आर्यरक्षित सूरि ने अनुयोगद्वार सूत्र (सूत्र० १५५) में बतलाए हैं। जिनमें से दो अनुगम सूत्रस्पर्शी और चार अर्थस्पर्शी हैं। अनुगम शब्द का नियुक्ति शब्द के साथ सूत्रस्पर्शिकनियुक्त्यनुगम रूपसे उल्लेख अनुयोगद्वार सूत्र से प्राचीन है इस लिए इस बात में तो कोई संदेह रहता ही नहीं कि यह अनुगमपद्धति या व्याख्यानशैली जैन वाङ्मय में अनुयोगद्वारसूत्र से पुरानी और नियुक्ति के प्राचीनतम स्तर का ही भाग है जो संभवतः श्रुतकेवली भद्रबाहुकर्तृक मानी जाने वाली नियुक्ति का ही भाग होना चाहिए ।
१ देखो, तत्त्वार्थ १.१३-१९। २ देखो, सिद्धहेम २.२.३९। ३ दृष्टान्तों के लिए देखो नन्दी सूत्र की मलयगिरि की टीका, पृ० १४४ से। ४ देखो, विशेषा• गा० १६९ से, तथा गा० ४५४ से। ५ देखो, टिप्पण पृ० ७३ से।
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