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ज्ञानबिन्दुपरिचय-मति और श्रुत की भेदरेखा का प्रयत्न २३ उपाध्यायजी ने मति और श्रुत की चर्चा करते हुए उन के भेद, भेद की सीमा और अभेद के बारे में, अपने समय तक के जैन वाङ्मय में जो कुछ चिंतन पाया जाता था उस सब का, अपनी विशिष्ट शैली से उपयोग करके, उपर्युक्त तीनों प्रयत्न का समर्थन सूक्ष्मतापूर्वक किया है। उपाध्यायजी की सूक्ष्म दृष्टि प्रत्येक प्रयत्न के आधारभूत दृष्टिबिन्दु तक पहुँच जाती है। इस लिए वे परस्पर विरोधी दिखाई देने वाले पक्षभेदों का भी समर्थन कर पाते हैं। जैन विद्वानों में उपाध्यायजी ही एक ऐसे हुए जिन्हों ने मति और श्रुत की आगमसिद्ध भेदरेखाओं को ठीक ठीक बतलाते हुए भी सिद्धसेन के अभेदगामी पक्ष को 'नव्य' शब्द के [६५०] द्वारा श्लेष से नवीन और स्तुत्य सूचित करते हुए, सूक्ष्म और हृदयङ्गम तार्किक शैली से समर्थन किया। - मति और श्रुत की भेदरेखा स्थिर करने वाले तथा उसे मिटाने वाले ऐसे तीन प्रयत्नों का जो ऊपर वर्णन किया है, उस की दर्शनान्तरीय ज्ञानमीमांसा के साथ जब हम तुलना करते हैं, तब भारतीय तत्त्वज्ञों के चिन्तन का विकासक्रम तथा उस का एक दूसरे पर पड़ा हुआ असर स्पष्ट ध्यान में आता है। प्राचीनतम समय से भारतीय दार्शनिक परंपराएँ आगम को स्वतत्र रूप से अलग ही प्रमाण मानती रहीं । सब से पहले शायद तथागत बुद्ध ने ही आगम के स्वतन्त्र प्रामाण्य पर आपत्ति उठा कर स्पष्ट रूप से यह घोषित किया कि- तुम लोग मेरे वचन को भी अनुभव और तर्क से जाँच कर ही मानो। प्रत्यक्षानुभव और तर्क पर बुद्ध के द्वारा इतना अधिक भार दिए जाने के फलस्वरूप आगम के स्वतन्त्र प्रामाण्य विरुद्ध एक दूसरी भी विचारधारा प्रस्फुटित हुई । आगम को स्वतत्र और अतिरिक्त प्रमाण मानने वाली विचारधारा प्राचीनतम थी जो मीमांसा, न्याय और सांख्य-योग दर्शन में आज भी अक्षुण्ण है। आगम को अतिरिक्त प्रमाण न मानने की प्रेरणा करने वाली दूसरी विचारधारा यद्यपि अपेक्षा कृत पीछे की है, फिर भी उस का स्वीकार केवल बौद्ध सम्प्रदाय तक ही सीमित न रहा । उस का असर आगे जा कर वैशेषिक दर्शन के व्याख्याकारों पर भी पड़ा जिस से उन्हों ने आगम-श्रुतिप्रमाण का समावेश बौद्धों की तरह अनुमान' में ही किया। इस तरह आगम को अतिरिक्त प्रमाण न मानने के विषय में बौद्ध और वैशेषिक दोनों दर्शन मूल में परस्पर विरुद्ध होते हुए भी अविरुद्ध सहोदर बन गए।
जैन परंपरा की ज्ञानमीमांसा में उक्त दोनों विचारधाराएँ मौजूद हैं। मति और श्रुत की भिन्नता मानने वाले तथा उस की रेखा स्थिर करने वाले ऊपर वर्णन किये गए आगमिक तथा आगमानुसारी तार्किक-इन दोनों प्रयत्नों के मूल में वे ही संस्कार हैं जो आगम को खतन एवं अतिरिक्त प्रमाण मानने वाली प्राचीनतम विचार धारा के पोषक रहे हैं। श्रुत को मति से अलग न मान कर उसे उसी का एक प्रकारमात्र स्थापित करने वाला
१"तापाच्छेदाच निकषात्सुवर्णमिव पण्डितैः । परीक्ष्य भिक्षवो ग्राह्य मदचो न तु गौरवात् ॥"
-तत्त्वसं० का० ३५८८ । २ देखो, प्रशस्तपादभाष्य पृ. ५७६, व्योमवती पृ० ५७७; कंदली पृ. २१३ ।
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