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________________ २२ ज्ञानबिन्दुपरिचय-मति और श्रुत की भेदरेखा का प्रयत्न प्रथम देखे जाते हैं और जो किसी प्राचीन दिगम्बरीय ग्रन्थ में हमारे देखने में नहीं आए, उन में अक्षर और अनक्षर श्रुत ये दो भेद सर्व प्रथम ही आते हैं । बाकी के बारह भेद उन्हीं दो भेदों के आधार पर अपेक्षाविशेष से गिनाये हुए हैं । यहाँ तक कि प्रथम प्रयत्न के फल स्वरूप माना जाने वाला अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य श्रुत भी दूसरे प्रयत्न के फलस्वरूप मुख्य अक्षर और अनक्षर श्रुत में समा जाता है । यद्यपि अक्षरश्रुत आदि चौदह प्रकार के श्रुत का निर्देश 'आवश्यकनियुक्ति' तथा 'नन्दी' के पूर्ववर्ती ग्रन्थों में देखा नहीं जाता, फिर भी उन चौदह भेदों के आधारभूत अक्षरानक्षर श्रुत की कल्पना तो प्राचीन ही जान पड़ती है। क्यों कि 'विशेषावश्यकभाष्य' (गा० ११७) में पूर्वगतरूप से जो गाथा ली गई है उस में अक्षर का निर्देश स्पष्ट है। इसी तरह दिगम्बर-श्वेताम्बर दोनों परंपरा के कर्म-साहित्य में समान रूप से वर्णित श्रुत के वीस प्रकारों में भी अक्षर श्रुत का निर्देश है । अक्षर और अनक्षर श्रुत का विस्तृत वर्णन तथा दोनों का भेदप्रदर्शन 'नियुक्ति' के आधार पर श्री जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने किया है । भट्ट अकलंक ने भी अक्षरानक्षर श्रुत का उल्लेख एवं निर्वचन 'राजवार्तिक' में किया है जो कि 'सर्वार्थसिद्धि' में नहीं पाया जाता। जिनभद्र तथा अकलंक दोनों ने अक्षरानक्षर श्रुत का व्याख्यान तो किया है, पर दोनों का व्याख्यान एकरूप नहीं है। जो कुछ हो पर इतना तो निश्चित ही है कि मति और श्रुत ज्ञान की भेदरेखा स्थिर करने वाले दूसरे प्रयत्न के विचार में अक्षरानक्षर श्रुत रूप से सम्पूर्ण मूक-वाचाल ज्ञान का प्रधान स्थान रहा है- जब कि उस भेद रेखा को स्थिर करने वाले प्रथम प्रयत्न के विचार में केवल शास्त्रज्ञान ही श्रुतरूप से रहा है । दूसरे प्रयत्न को आगमानुसारी तार्किक इस लिए कहा है कि उस में आगमिक परंपरासम्मत मति और श्रुत के भेद को तो मान ही लिया है। पर उस भेद के समर्थन में तथा उस की रेखा आँकने के प्रयत्न में, क्या दिगम्बर क्या श्वेताम्बर सभी ने बहुत कुछ तर्क पर दौड़ लगाई है। [६५०] तीसरा प्रयत्न शुद्ध तार्किक है जो सिर्फ सिद्धसेन दिवाकर का ही जान पड़ता है । उन्हों ने मति और श्रुत के भेद को ही मान्य नहीं रक्खा । अतएव उन्हों ने भेदरेखा स्थिर करने का प्रयत्न भी नहीं किया। दिवाकर का यह प्रयत्न आगमनिरपेक्ष तर्कावलम्बी है । ऐसा कोई शुद्ध तार्किक प्रयत्न, दिगम्बर वाङ्मय में देखा नहीं जाता। मति और श्रुत का अभेद दर्शानेवाला यह प्रयत्न सिद्धसेन दिवाकर की खास विशेषता सूचित करता है । वह विशेषता यह कि उन की दृष्टि विशेषतया अभेदगामिनी रही, जो कि उस युग में प्रधानतया प्रतिष्ठित अद्वैत भावना का फल जान पड़ता है। क्यों कि उन्हों ने न केवल मति और श्रुत में ही आगमसिद्ध भेदरेखा के विरुद्ध तर्क किया, बल्कि "अवधि और मनःपर्याय में तथा "केवल ज्ञान और केवल दर्शन में माने जाने वाले आगमसिद्ध भेद को भी तर्क के बल पर अमान्य किया है। १देखो, विशेषावश्यकभाष्य, गा० ४६४ से। २ देखो, राजवार्तिक १.२०.१५। ३ देखो, निश्चयद्वात्रिंशिका श्लो० १९; ज्ञानबिन्दु पृ० १६। ४ देखो, निश्चयद्वा० १७, ज्ञानबिन्दु पृ. १८। ५ देखो, सन्मति द्वितीयकाण्ड, तथा ज्ञानबिन्दु पृ०३३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002518
Book TitleGyanbindu Prakarana
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1942
Total Pages244
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size13 MB
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