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________________ ज्ञानबिन्दुपरिचय - २. विषय विवेचन ४. श्रद्धानरूप दर्शन का ज्ञान से अभेद' । । इन चार मुद्दों को प्रस्तुत करके सिद्धसेन ने, ज्ञान के भेद-प्रभेद की पुरानी रेखा पर तार्किक विचार का नया प्रकाश डाला है, जिसको कोई भी, पुरातन रूढ संस्कारों तथा शास्त्रों के प्रचलित व्याख्यान के कारण, पूरी तरह समझ न सका । जैन विचारकों में सिद्धसेन के विचारों के प्रति प्रतिक्रिया शुरू हुई । अनेक विद्वान् तो उनका प्रकट विरोध करने लेगे, और कुछ विद्वान् इस बारे में उदासीन ही रहे । क्षमाश्रमण जिनभद्र गणीने बड़े जोरों से विरोध किया । फिर भी हम देखते हैं कि यह विरोध सिर्फ केवलज्ञान और केवलदर्शन के अभेदवाले मुद्दे पर ही हुआ है बाकी के मुद्दों पर या तो किसीने विचार ही नहीं किया या सभी ने उपेक्षा धारण की । पर जब हम प्रस्तुत ज्ञानबिन्दु में उन्हीं मुद्दों पर उपाध्यायजी का ऊहापोह देखते हैं, तब कहना पड़ता है कि उतने प्राचीन युगमें भी, सिद्धसेन की वह तार्किकता और सूक्ष्म दृष्टि जैन साहित्य को अद्भूत देन थी । दिवाकर ने इन चार मुद्दों पर के अपने विचार 'निश्चयद्वात्रिंशका' तथा 'सन्मतिप्रकरण' में प्रकट किये हैं। उन्हों ने ज्ञान के विचारक्षेत्र में एक और भी नया प्रस्थान शुरू किया। संभवतः दिवाकर के पहले जैन परंपरा में कोई न्याय विषय का - अर्थात् परार्थानुमान और तत्संबन्धी पदार्थ निरूपक - विशिष्ट ग्रन्थ न था । जब उन्होंने इस अभाव की पूर्ति के लिए 'न्यायावतार' बनाया तब उन्होंने जैन परंपरा में प्रमाणविभाग पर नये सिरे पुनर्विचार प्रकट किया। आर्यरक्षितस्वीकृत न्यायदर्शनीय चतुर्विध प्रमाणविभाग को जैन परंपरा में गौण स्थान दे कर, निर्युक्तिकारस्वीकृत द्विविध प्रमाणविभाग को प्रधानता देने वाले वाचक के प्रयत्न का जिक्र हम ऊपर कर चुके हैं । सिद्धसेन ने भी उसी द्विविध प्रमाण विभाग की भूमिका के ऊपर 'न्यायावतार' की रचना की और उस प्रत्यक्ष और परोक्ष-प्रमाणद्वय द्वारा तीन प्रमाणों को जैन परंपरा में सर्व प्रथम स्थान दिया, जो उनके पूर्व बहुत समय से, सांख्य दर्शन तथा वैशेषिक दर्शन में सुप्रसिद्ध थे और अब तक भी हैं । सांख्य और वैशेषिक दोनों दर्शन जिन प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम- इन तीन प्रमाणों को मानते आये हैं, उनको भी अब एक तरह से, जैन परंपरा में स्थान मिला, जो कि वादकथा और परार्थानुमान की दृष्टि से बहुत उपयुक्त है । इस प्रकार जैन परंपरा में न्याय, सांख्य और वैशेषिक तीनों दर्शन सम्मत प्रमाणविभाग प्रविष्ट हुआ । यहां पर सिद्धसेनस्वीकृत इस त्रिविध प्रमाणविभाग की जैन १ देखो, सन्मति, २.३२; और ज्ञानबिन्दु, पृ० ४७ । २ जैसे, हरिभद्र - देखो, धर्मसंग्रहणी, गा० १३५२ से तथा नंदीवृत्ति, पृ. ५५ । ३ देखो, न्यायावतार, श्लो० १ । ४ यद्यपि सिद्धसेन ने प्रमाण का प्रत्यक्ष-परोक्ष रूपसे द्विविध विभाग किया है किन्तु प्रत्यक्ष, अनुमान, और शब्द इन तीनों का पृथक् पृथक् लक्षण किया है । ५ सांख्यकारिका, का० ४ । ६ प्रमाण के भेद के विषय में सभी वैशेषिक एकमत नहीं। कोई उस के दो भेद तो कोई उस के तीन भेद मानते हैं । प्रशस्तपादभाष्य में ( पृ० २१३ ) शाब्द प्रमाण का अंतर्भाव अनुमान में है । उस के टीकाकार श्रीधर का भी वही मत है ( कंदली, पृ० २१३ ) किन्तु व्योमशिव को वैसा एकान्तरूप से इष्ट नहीं - देखो व्योमवती, पृ० ५७७,५८४ । अतः जहाँ कहीं वैशेषिकसंगत तीन प्रमाणों का उल्लेख हो वह व्योमशिव का समझना चाहिए - देखो, न्यायावतार, टीकाटिप्पण, पृ० ९ तथा प्रमाणमीमांसा भाषाटिप्पण- पू० २३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002518
Book TitleGyanbindu Prakarana
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1942
Total Pages244
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size13 MB
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