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ज्ञानबिन्दुपरिचय-२. विषय विवेचन में स्वीकृत न्यायदर्शनीय चतुर्विध प्रमाणविभाग की ओर उदासीनता दिखाते हुए नियुक्तिगत द्विविध प्रमाण विभाग का समर्थन किया है । वाचक के इस समर्थन का आगे के ज्ञान विकास पर प्रभाव यह पड़ा है कि फिर किसी जैन तार्किक ने अपनी ज्ञान-विचारणा में उक्त चतुर्विध प्रमाण विभाग को भूल कर भी स्थान नहीं दिया। हाँ, इतना तो अवश्य हुआ कि आर्यरक्षित सूरि जैसे प्रतिष्ठित अनुयोगधर के द्वारा, एक बार जैन श्रुत में स्थान पाने के कारण, फिर न्यायदर्शनीय वह चतुर्विध प्रमाण विभाग, हमेशां के वास्ते 'भगवती' आदि परम प्रमाण भूत आगमों में भी संगृहीत हो गया है । वाचक उमास्वाति का उक्त चतुर्विध प्रमाणविभाग की ओर उदासीन रहने में तात्पर्य यह जान पड़ता है, कि जब जैन आचार्यों का खोपज्ञ प्रत्यक्ष-परोक्ष प्रमाण विभाग है तब उसीको ले कर ज्ञानों का विचार क्यों न किया जाय ? और दर्शनान्तरीय चतुर्विध प्रमाणविभाग पर क्यों भार दिया जाय ? इस के सिवाय वाचकने मीमांसा आदि दर्शनान्तर में प्रसिद्ध अनुमान, अर्थापत्ति आदि प्रमाणों का समावेश भी मति-श्रुतमें किया जो वाचक के पहले किसी के द्वारा किया हुआ देखा नहीं जाता । वाचक के प्रयत्न की दो बातें खास ध्यान खींचतीं हैं। एक तो वह, जो नियुक्तिखीकृत प्रमाण विभाग की प्रतिष्ठा बढ़ाने से संबन्ध रखती है; और दूसरी वह, जो दर्शनान्तरीय प्रमाण की परिभाषाओं का अपनी ज्ञान परिभाषा के साथ मेल बैठाती है, और प्रासंगिक रूप से दर्शनान्तरीय प्रमाणविभाग का निराकरण करती है ।
(५) पांचवी भूमिका, सिद्धसेन दिवाकर के द्वारा किये गये ज्ञान के विचारविकास की है । सिद्धसेनने-जो अनुमानतः विक्रमीय छठी शताब्दी के उत्तरवर्ती ज्ञात होते हैं - अपनी विभिन्न कृतियों में, कुछ ऐसी बातें ज्ञान के विचार क्षेत्र में प्रस्तुत की हैं जो जैन परंपरा में उन के पहले न किसी ने उपस्थित की थीं और शायद न किसीने सोची भी थीं। ये बातें तर्कदृष्टि से समझने में जितनी सरल हैं उतनी ही जैन परंपरागत रूढ मानस के लिए केवल कठिन ही नहीं बल्कि असमाधानकारक भी हैं। यही वजह है कि दिवाकर के उन विचारों पर, करीब हजार वर्ष तक, न किसी ने सहानुभूतिपूर्वक ऊहापोह किया और न उन का समर्थन ही किया । उपाध्यायजी ही एक ऐसे हुए, जिन्हों ने सिद्धसेन के नवीन प्रस्तुत मुद्दों पर सिर्फ सहानुभूतिपूर्वक विचार ही नहीं किया, बल्कि अपनी सूक्ष्म प्रज्ञा और तर्क से परिमार्जित जैनदृष्टि का उपयोग करके. उन महों का प्रस्तुत 'ज्ञानबिन्दु' ग्रन्थ में, अति विशद और अनेकान्त दृष्टि को शोभा देनेवाला समर्थन भी किया । वे मुद्दे मुख्यतया चार हैं
१. मति और श्रुत ज्ञान का वास्तविक ऐक्य । । २. अघधि और मनःपर्याय ज्ञान का तत्त्वतः अभेद'।
३. केवल ज्ञान और केवल दर्शन का वास्तविक अभेद ।
१"चतुर्विधमित्येके नयवादान्तरेण"-तत्त्वार्थभाष्य १.६। २“से किं तं पमाणे?, पमाणे चउविहे पण्णत्ते, तं जहा-पञ्चक्खे...... जहा अणुओगदारे तहा णेयव्वं ॥" भगवती, श० ५. उ० ३. भाग २. पृ० २११; स्थानांगसूत्र पृ० ४९ । ३ तत्त्वार्थभाष्य १.१२। ४ देखो, निश्चयद्वात्रिंशिका का० १९, तथा ज्ञानबिन्दु पृ. १६। ५ देखो, निश्चयद्वा० का० १७ और ज्ञानबिन्दु पृ० १८। ६ देखो, सन्मति काण्ड २ संपूर्ण; और
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