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________________ किंचित् प्रास्ताविक श्रीमद् यशोविजय महोपाध्यायरचित ज्ञानबिन्दु नामक यह गभीर ग्रन्थ, पण्डितप्रवर श्री सुखलालजी एवं उनके एक अन्तेवासी पं. श्री दलसुख मालवणिया तथा विदुषी शिष्या श्रीमती हीरा कुमारी देवीके संयुक्त सम्पादन कार्यसे समलंकृत होकर सिंघी जैन ग्रन्थमालाके १६ ३ मणिके रूपमें आज प्रकाशित हो रहा है । इतः पूर्व ८ वें मणिके रूपमें, इन्हीं महोपाध्यायकी 'जैन तर्कभाषा' नामक प्रसिद्ध कृति, इन्हीं पण्डितवर्यके तत्त्वावधानमें संपादित होकर, जो ४ वर्ष पूर्व, प्रकट हो चुकी है, उसके प्रारंभमें हमनें जो 'प्रासंगिक वक्तव्य' दिया है उसमें, प्रज्ञादृष्टि पण्डित श्रीसुखलालजीके दर्शनशास्त्रविषयक प्रौढ पाण्डित्यके परिचायक जो ५-१० वाक्य हमने कहे हैं उनकी प्रतीति तो, उसके बाद इसी ग्रन्थमालामें प्रकाशित हेमचन्द्राचार्यकृत 'प्रमाणमीमांसा' ग्रन्थके साथ दिये गये विस्तृत और विशिष्ट टिप्पणोंके अवलोकनसे विशेषज्ञ और मर्मज्ञ अभ्यासियोंको अच्छी तरह हो गई है। प्रमाणमीमांसाके लिये लिखे गये वे सब टिप्पण कोरे टिप्पण ही नहीं हैं, बल्कि कई-कई तो उनमेंसे उस-उस विषयके स्वतंत्र एवं मौलिक निबन्ध ही हैं। प्रस्तुत ग्रन्थके साथ, पण्डितजीने ग्रन्थगत विषयका हार्द समझानेके लिये जो सुविस्तृत एवं सूक्ष्मविचारपूर्ण 'परिचय' लिखा है यह अपने विषयका एक अपूर्व विवेचन है। इसकी एक-एक कण्डिकामें, पण्डितजीका जैनशास्त्रविषयक ज्ञान कितना सूक्ष्म, कितना विशाल और कितना तलस्पर्शी है इसका उत्तम परिचय मिलता है। जैनदर्शनप्रतिपादित 'ज्ञान'तत्त्वका ऐसा पृथक्करणात्मक और तुलनात्मक स्वरूप-विवेचन आजतक किसी विद्वान्ने नहीं किया । जिस प्रकार मूल ग्रन्थकार श्रीयशोविजयोपाध्यायने प्रस्तुत विषयमें अपना मौलिक तत्त्वनिरूपण प्रदर्शित किया है, उसी प्रकार, पण्डित श्रीसुखलालजीने प्रस्तुत ग्रन्थपरिचयमें अपना मौलिक तत्त्वदिग्दर्शन एवं वस्तुविवेचन उपस्थित किया है। ग्रन्थकार महोपाध्याय यशोविजयजीके जीवनपरिचयकी दृष्टिसे, जैन तर्कभाषामें, संक्षेपमें पर अवश्य ज्ञातव्य ऐसा थोडासा उल्लेख, पण्डितजीने अपनी प्रस्तावनामें किया है । वाचकवर यशोविजयजीकी साहित्यसंपत्ति बहुत ही समृद्ध और वैविध्यपूर्ण है । उनकी एक-एक कृति एक-एक स्वतंत्र निबन्धके योग्य सामग्रीसे भरी हुई है। वे जैन श्रमण संघमें, अन्तिम श्रुतकेवली श्री भद्रबाहु स्वामी की तरह, 'अन्तिम श्रुतपारगामी' कहे जा सकते हैं । उनके बाद आज तक वैसा कोई श्रुतवेत्ता और शास्त्रप्रणेता समर्थ विद्वान पैदा नहीं हुआ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002518
Book TitleGyanbindu Prakarana
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1942
Total Pages244
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size13 MB
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