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________________ १७ गाथा पत्र १३४४ ५०३५ ५०३६-४४ बृहत्कल्पसूत्र पंचम विभागनो विषयानुक्रम । विषय कालपाराश्चिकनी सामाचारी कालपाराञ्चिक जे आचार्यनी निश्रामा रही प्रायश्चित्त करे ते आचार्ये ते कालपाराञ्चिक प्रत्ये केम वर्तवू ? वाचना-प्रच्छना आदि जेवां महत्त्वनां कार्योने छोडीने पण कालपाराश्चिकनी खबर लेवी, तेनी तबीयत नरम होय त्यारे तेनी स्वयं सेवा शुश्रूपा करवी, कारणवश पोते जइ शके तेम न होय त्यारे पोताने बदले ते कालपाराञ्चिकनी खबर लेवा उपाध्याय अगर गीतार्थने मोकलवो इत्यादिने लगती सामाचारी कालपाराञ्चिक समर्थ होय तो राजा वगेरे तरफधी थता उपद्रवने टाळे अने तेना बदलामां राजानी भलामणथी अथवा पोतानी इच्छाथी श्रीसंघ ते कालपाराञ्चिकनी कालमर्यादामां घटाडो करे अथवा तेने सदंतर माफ करे तो ते कालपाराञ्चिक निर्दोष गणाय १३४४-४६ ५०४५-५७ १३४६-४९ १३४९-६७ १३४९ १३४९ १३४९-६७ ५०५८-५१३७ अनवस्थाप्यप्रकृत सूत्र ३ अनवस्थाप्यप्रायश्चित्तने योग्य त्रण स्थानो-साध. मिकस्तैन्य, अन्यधार्मिकस्तैन्य अने हस्ताताल ५०५८ अनवस्थाप्यप्रकृतनो पूर्वसूत्र साथे सम्बन्ध अनवस्थाप्यसूत्रनी व्याख्या ५०५९-५१३७ अनवस्थाप्यसूत्रनी विस्तृत व्याख्या ५०५९ अनवस्थाप्यना आशातनाअनवस्थाप्य अने प्रति सेवनाअनवस्थाप्यादि प्रकारो ५०६०-६१ १ आशातनाअनवस्थाप्यनुं वरूप आशातनाअनवस्थाप्यना तीर्थकराशातनादि छ प्रकारो अने तेने लगतां प्रायश्चित्तो ५०६२-५१२३ २ प्रतिसेवनाअनवस्थाप्यनुं स्वरूप ५०६२ प्रतिसेवनाअनवस्थाप्यना साधर्मिकस्तैन्यकारी अन्य धार्मिकम्तैन्यकारी अने हस्तातालदायी ए त्रण प्रकारो १३५० १३५० १३५०-६४ १३५० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002514
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Part 05
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorChaturvijay, Punyavijay
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year2002
Total Pages340
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size19 MB
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