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________________ १४ गोथा ४९२०-३० ४९३१-४० ४९४१-६० ४९४१-४२ ४९४३-४७ ४९४८-६० ४९६१-६८ Jain Education International बृहत्कल्पसूत्र पंचम विभागनो विषयानुक्रम | विषय [ गाथा ४९१५ - पादलिप्ताचार्ये विद्यावडे बनावेली राजकन्यकानुं उदाहरण ] वसतिविषयक विस्तरदोषनुं स्वरूप, साधुनी वसतिमां वेश्यास्त्री, सस्त्रीकपुरुष वगेरे पेसी जाय तेमने बहार काढवाने लगती यतनाओ अने अपवादो [ गाथा ४९२५ - हस्तकर्मविषयक प्रायश्चित्तो - श्रीगृहनुं उदाहरण ] २ मैथुननुं स्वरूप देव, मनुष्य अने तिर्यंच संबंधी मैथुन प्राणातिपात- पिंडविशुद्धि आदि मूलगुण- उत्तरगुणने लगतां दरेक अपवादस्थानोमां प्रायश्चित्तनो निषेध करवामां आवे छे ते छतां मैथुनविषयक अपवादस्थानोमां प्रायश्चित्त केम आपवामां आवे छे ? तेने लगती शिष्यनी शंका अने ते सामे आचार्यनो उत्तर. अर्थात् जैनशासनमां मैथुनभाव रागद्वेषविर - हित न होवाने कारणे तेमां अपवाद ज नधी किन्तु गीतार्थादि कारणवशात् जयणापूर्वक जे प्रतिसेवा करे छे तेना अपराधस्थाननी लघु गुरु तुलना करीने प्रायश्चित्तस्थानोमा हानि-वृद्धि करवामां आवे छे [ गाथा ४९४३ - दर्पिका अने कल्पिका प्रतिसेवानुं स्वरूप ] मैथुनविषयक प्रायश्चित्तस्थानोमां हानि-वृद्धि अर्थात् ओछा-वत्ताप केम थाय छे ? तेनुं निर्वशीय राजा अने दुकाळमां एक क्षेत्रमां वृद्धवास रहेल स्थविर आचार्यना क्षुल्लक शिष्यना दृष्टान्तद्वारा समर्थन. ३ रात्रिभोजननुं स्वरूप रात्रिभोजन, तेने लगता अपवादो, यतनाओ अने प्रायश्चित्तनुं निरूपण For Private & Personal Use Only पत्र १३१७- १९ १३१९ – २२ १३२२-२७ १३२२ १३२२-२३ . १३२४-२७ १३२७-२९ www.jainelibrary.org
SR No.002514
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Part 05
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorChaturvijay, Punyavijay
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year2002
Total Pages340
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size19 MB
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