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२० जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण पृथक् किया जाता है, अत: भूमि घट-कार्य के प्रति अपादान कारण है। अपेक्षा से चक्र से घट को अलग करने पर चक्र भी अपादान कारण होता है।
(vi) अधिकरण- 'संनिधीयते स्थाप्यते कार्य यत्र तत् संनिधानमाधारः अधिकरणमित्यर्थः। ११ जो पदार्थ कार्य के होने में आधार बनता है, वह अधिकरण कारण है। घट का आधार चक्र है। चक्र का आधार भूमि है और भूमि का आधार आकाश है। आकाश स्वरूपप्रतिष्ठित होने से स्वयं ही आधारभूत है। इस प्रकार चक्र, भूमि तथा आकाश घट-कार्य के प्रति अधिकरण कारण हैं। दव्य-क्षेत्र-काल-भाव और भव की कारणता
जैन दर्शन में कारणता के प्रतिपादन की एक और दृष्टि प्राप्त होती है, वह है- द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव की कारणता। कहीं पर इन चार कारणों के साथ भव को भी कारण मानते हुए पाँच कारण निरूपित हैं- द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और भव। इनकी कारणता का उल्लेख आगम-साहित्य एवं टीका साहित्य में विभिन्न स्थानों पर प्राप्त होता है। जैन वाङ्मय में एतत् विषयक विचार
व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र में कहा है'कतिविधे णं भंते! करणे पन्नत्ते?
"गोयमा! पंचविहे करणे पन्नत्ते, तंजहा- दबकरणे, खत्तकरणे, कालकरणे, भवकरणे, भावकरणे'२
भगवन्! करण कितने प्रकार का कहा गया है?
गौतम! करण पाँच प्रकार का कहा गया है। यथा- १. द्रव्यकरण २. क्षेत्रकरण ३. कालकरण ४. भवकरण और ५. भावकरण।
ये पाँच प्रकार के करण पंचविध कारणों का ही ख्यापन कर रहे हैं। 'करण' शब्द का प्रयोग साधन या कारण के अर्थ में भी होता है। व्याकरण में साधकतम कारण को करण कहा जाता है। यहाँ द्रव्य, क्षेत्र आदि पाँचों कारण क्रिया की निष्पत्ति में सहायकभूत होने से करण हैं। इन कारणों अथवा करणों का विचार जीवों में घटित होने वाले कार्यों की अपेक्षा लेकर किया गया है। यह तथ्य निम्नांकित आगम-वाक्यों से भी पुष्ट होता है
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