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________________ १८ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण जाते हैं. क्योंकि इन सबमें अपने-अपने ढंग से क्रिया की जनकता पायी जाती है। कारक होने से ये सब किसी न किसी रूप में कार्य की जनकता में कारण बनते हैं। व्याकरण सम्मत षट् कारकों की कारणता का प्रतिपादन विशेषावश्यक भाष्य में जिनभद्रगणि (६-७वीं शती) ने इस प्रकार किया है कारणमहवा छद्धा तत्थ संततो त्ति कारणं कत्ता। कज्जयसाहगतमं करणम्मि उ पिंडं दंडाई।। कम्म किरिया कारणमिह निच्चिट्ठो अओ न साहेइ। अहवा कम्म कुंभो स कारणं बुद्धि हेउ त्ति।। देओ स जस्स तं संपयाणमिह तं पि कारणं तस्स। होइ तदस्थित्ताओ न कीरए तं विणा जं सो।। भूपिंडावायाओ पिंडो वा सक्करादवायाओ। चक्कमहावाओ वाऽपादाणं कारणं तं पि।। वसुहाऽऽगासं चक्कं सरूवमिच्चाइ सनिहाणं जं। कुंभस्स तं णि कारणमभावओ तस्स जदसिद्धी।। विशेषावश्यक पर मल्लधारी हेमचन्द्राचार्य ने वृत्ति करते हुए कर्ता आदि कारकों की कारणता को स्पष्ट किया है (i) कर्ता की कारणता- 'कर्ता कुलाललक्षणस्तावत् कार्यस्य घटादेः कारणम्, तस्य तत्र स्वातन्त्र्येण व्यापारात् २३ अर्थात् घट रूपी कार्य में कुलाललक्षण वाला कर्ता-कारण है। कर्ता जब कार्य रूप कर्म को अपनी क्रिया का उद्देश्य बना लेता है तभी उसकी सम्पन्नता के लिए वह क्रिया करने में प्रवृत्त होता है। अत: कार्य करने में स्वतंत्र होने से वह कर्ता रूप में घट का कारण बनता है। (ii) कर्म की कारणता- ‘क्रियते का निवर्त्यते इति कर्म४ इस व्युत्पत्ति से कर्म के दो स्वरूप प्रकट होते हैं। एक क्रिया रूप और दूसरा कार्य रूप। क्रिया तो कर्ता के व्यापार रूप होती है, इसकी घट आदि कार्य के प्रति कारणता प्रतीत ही है, क्योंकि इसके बिना कुम्भकार भी घट का कारण नहीं हो सकता। कर्ता को ईप्सिततम होने से क्रियमाण घट ही कर्म बनता है। यह घट ही कार्य भी है। कार्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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