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१० जैनदर्शन में कारण- कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण
द्रव्य दृष्टि से सत्कार्यवाद का समर्थन करते हुए कहा है- " एवं सदो विणासो असदो जीवस्स णत्थि उप्पादो। " जीव का चैतन्य गुण कभी विनष्ट नहीं होता, इसलिए विभिन्न पर्यायों को धारण करता हुआ भी जीव सर्वथा नष्ट नहीं होता और न ही सर्वथा नवीन रूप में उत्पन्न होता है । द्रव्य दृष्टि से सत् का सर्वथा नाश नहीं होता और न ही असत् का उत्पाद होता है।
पर्याय दृष्टि से असत्कार्यवाद का समर्थन करते हुए कहा है- " एवं सदो विणासो असदो जीवस्स हवदि उप्पादो। " जीव का जन्म और मरण की अपेक्षा सेविनाश और उत्पाद होता रहता है। एक स्थान से अन्य स्थान पर जन्म लेने के लिए उसे अपने पूर्व शरीर का त्याग करना होता है। अन्य स्थान पर वह नवीन शरीर को धारण करता है।
कुन्दकुन्दाचार्य ने उपर्युक्त दोनों अवधारणाओं के भेद को मिटाकर उसमें यदृष्टि से एकता स्थापित की है। नयवाद के आधार पर ही जैन-दर्शन में कारणकार्य सिद्धान्त 'सदसत्कार्यवाद' से नामांकित हुआ है।
पं. सुखलाल संघवी ने शक्ति और उत्पत्ति के आधार पर सदसत्त्व की व्याख्या की है - शक्ति की अपेक्षा से कार्य सत् है, पर उत्पत्ति की अपेक्षा से असत् है । अतः उत्पत्ति के लिए प्रयत्न की अपेक्षा रहती ही है और इसीलिए उत्पत्ति के पूर्व अव्यक्त दशा में व्यक्त कार्य सापेक्ष व्यवहार संभव नहीं है। इसी तरह कार्य उत्पत्ति की अपेक्षा असत् है, पर शक्ति की अपेक्षा वह सत् है । इसीलिए प्रत्येक कारण से प्रत्येक कार्य की उत्पत्ति के लिए अथवा मनुष्य शृंग जैसी असत् वस्तु की उत्पत्ति के लिए अवकाश नहीं रहता। जिस कारण में जिस कार्य को प्रकट करने की शक्ति हो, उसमें से प्रयत्न करने के पश्चात् वही कार्य प्रकट होता है, दूसरा नहीं। इस प्रकार सत् और असत्वाद का समन्वय सम्यक् या समीचीन ( वास्तविक ) स्थिति को प्रकट करता है। "
कारण और कार्य के लक्षण
कारण एवं कार्य का स्वरूप प्रायः न्यायदार्शनिकों की भाँति ही जैनदार्शनिकों को भी स्वीकार्य है। वे भी कार्य-कारण को भिन्न लक्षण वाला मानते हैं। यदि इनका लक्षण भिन्न न हो तो सांकर्य दोष हो जाएगा।'
प्रभाचन्द्राचार्य (११वीं शती) ने कारण का लक्षण दिया है
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'यद्भावे नियता यस्योत्पत्तिस्तत्तस्य कार्यम्, इतरच्च कारणम् *
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