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६३६ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण गौण-प्रधान भाव संभव है। कभी काल प्रधान हो सकता है, कभी स्वभाव, कभी नियति, कभी पूर्वकृत कर्म तो कभी पुरुषार्थ। यह भी आवश्यक नहीं कि सदैव एक साथ पाँचों कारण उपस्थित हों, पाँचों कारण तो जीव में घटित होने वाले कार्यों में ही होते हैं, अजीव पदार्थों में सम्पन्न होने वाले कार्यों में न तो पूर्वकृत कर्म कारण होता है और न ही उनका अपना पुरुषार्थ। उपचार से जीव के पूर्वकृत कर्मों एवं पुरुषार्थ को कथंचित् कारण माना जा सकता है। पुद्गल के प्रयोग-परिणमन में तो जीव का पुरुषार्थ कारण बनता भी है। ये पाँच कारण परस्पर एक-दूसरे के प्रतिबंधक नहीं होते है। इनमें परस्पर समन्वय से कार्य की सिद्धि होती है।
___ अन्त में यह कहा जा सकता है कि पंच समवाय का सिद्धान्त जैन दर्शन की अनेकान्तवादी या नयवादी दृष्टि का परिणाम है तथा यह जैनागमों की मूल मान्यता से अविरुद्ध है। अत: कहा है
सब्वेवि य कालाई इह समुदायेण साहगा भणिया। __ जुज्जति य एमेव य सम्म सव्वस्स कज्जस्स।।३७
'पंच समवाय' सिद्धान्त को स्वीकार करने पर भी जैनदर्शन में पुरुषकारवाद अथवा पुरुषार्थवाद की प्रधानता अंगीकृत है। श्रमण संस्कृति का दर्शन होने के कारण इसमें श्रम अर्थात् उद्यम या पुरुषार्थ का विशेष महत्त्व है। मनुष्य के हाथ में पुरुषार्थ ही है, जिससे वह अपने भाग्य को भी परिवर्तित कर सकता है और मोक्ष को भी प्राप्त कर सकता है। इसीलिए व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र के वृत्तिकार अभयदेवसूरि का कथन है"यद्यप्युदीरणादिषु कालस्वभावादीनां कारणत्वमस्ति तथाऽपि प्राधान्येन पुरुषवीर्यस्यैव कारणत्वम्। ३८ अर्थात् उदीरणा आदि में काल-स्वभाव आदि की कारणता स्वीकृत है तथापि आगम की दृष्टि से पुरुषार्थ का ही प्राधान्य है। सन्दर्भ :
१.
सन्मतितर्क ३.५३
(क) महाभारत, आदि पर्व, प्रथम अध्याय, श्लोक २४८, २५० (ख) सन्मतितर्क प्रकरण ३.५३ पर अभयदेव की टीका, पृ. ७११ (ग) आचारांग की शीलांक टीका १.१.१.३
(घ) शास्त्रवार्ता समुच्चय, स्तबक, श्लोक ५४ ३. माण्डूक्यकारिका, प्रथम प्रकरण, श्लोक ८
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