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उपसंहार ६२९ द्वादशारनयचक्र में मल्लवादी कहते हैं कि पुरुष की जाग्रत, सुप्त, सुषुप्ति और तूर्य नामक चार अवस्थाएँ निरूपित की गई है। उनमें पुरुष तत्त्व इन चार अवस्थाओं के लक्षण वाला है अथवा ये चार अवस्थाएँ पुरुषादि के लक्षण वाली है? यदि चार अवस्थाएँ स्वयं ही पुरुष हैं तो इन अवस्थाओं से भिन्न किसी पुरुष की सिद्धि नहीं होती। चार अवस्थाओं का समुदाय ही यदि पुरुष है तो यह समुदायवाद मात्र रह जाएगा, पुरुषवाद नहीं।
यदि तूर्य अवस्था के प्रतिपादन के लिए इन चार अवस्थाओं का क्रम स्वीकार किया गया है तो इन अवस्थाओं के क्रमिक होने से क्षणिकवाद की आपत्ति आती है।
चार अवस्थाओं के चार ज्ञानों की कल्पना करने से कल्पना ज्ञान मात्र ही सत्य रह जाएगा तथा उनका आभास कराने वाली बाह्य वस्तु जैसे स्वप्न में नहीं होती है वैसे नहीं रहेगी। इस प्रकार विज्ञान के अतिरिक्त पदार्थों का शून्यवाद उपस्थित हो जाएगा।
यदि यह पुरुष चार अवस्थाओं से एक अवस्था मात्र स्वरूप वाला है तो अन्य अवस्थाओं का अभाव हो जायेगा यदि प्रत्येक अवस्था में विनिद्रा अवस्था की सर्वात्मकता है तो तृण आदि भी सर्वात्मक या सर्वगत हो जायेंगे। फिर पुरुष की एकत्व की कल्पना से क्या लाभ?
पुरुष की स्वात्मा ही उसकी अवस्था है। यदि अवस्था नहीं है तो पुरुष नहीं है। यदि पुरुष की अवस्था को स्वीकार भी किया जाय तो पुरुष की चार अवस्थाओं की एकता सिद्ध होती है।
पुरुष की अद्वैतता असिद्ध है।
जब पुरुष की लक्षण स्वरूप विनिद्रा अवस्था पुरुष नहीं है तथा अन्य अवस्थाएँ भी पुरुष नहीं है तो इससे पुरुष का अभाव सिद्ध होता है।
जब पुरुष का ही अभाव है तो सर्वगतता कैसे होगी?
विशेषावश्यक भाष्य में जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने 'पुरुषेवेदं सर्व' वेद वाक्य को अर्थवाद वाक्य बताकर उसका निरसन किया है।
१०. सन्मति तर्क टीका में अभयदेवसूरि ने जगदुत्पत्ति में पुरुष की कारणता पर आक्षेप करते हुए कहा है कि पुरुष को जगत् की स्थिति, सर्ग और प्रलय का कारण मानना उसी प्रकार असंगत है जिस प्रकार ईश्वर की जगत् हेतुता असंगत है।
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