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________________ उपसंहार ६०७ में वेद, उपनिषद्, पुराण, रामायण, महाभारत, भगवद् गीता, संस्कृत साहित्य की विभिन्न कृतियों, विभिन्न दार्शनिक ग्रन्थों, जैनागम और जैनाचार्यों की रचनाओं के आधार पर ऐतिहासिक क्रम से प्रकाश डाला गया है। प्रथम अध्याय में 'जैनदर्शन में मान्य कारणवाद एवं पंचसमवाय' पर संक्षेप में विचार निबद्ध हैं। द्वितीय अध्याय 'कालवाद' से सम्बद्ध है। कालवाद के अनुसार एक मात्र काल ही समस्त कार्यों का कारण है। कालवाद के संबंध में कोई स्वतंत्र ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है। इस सिद्धान्त को लेकर किसी ग्रन्थ की रचना की गई हो ऐसा भी उल्लेख नहीं मिलता और न ही इस सिद्धान्त के प्रवर्तक का नामोल्लेख मिलता है। कालवाद किसी एक व्यक्ति की मान्यता न होकर सामूहिक मान्यता बन गई थी, ऐसा प्रतीत होता है। कालवाद की मान्यता के संबंध में निम्नांकित श्लोक महाभारत, अभयदेव की सन्मतितर्क टीका, सूत्रकृतांग पर शीलांकाचार्य की टीका, हरिभद्र सूरि विरचित शास्त्रवार्ता समुच्चय आदि ग्रन्थों में मिलता है काल: पचति भूतानि, काल: संहरते प्रजाः। कालः सुप्तेषु जागर्ति, कालो हि दुरतिक्रमः।।' अर्थात् काल ही पृथ्वी आदि भूतों का परिणमन करता है। काल ही प्रजा का संहार करता है। काल ही लोगों के सो जाने पर जागता है, इसलिए काल की कारणता अनुल्लंघनीय है। ___ कालवाद की प्राचीनता का अनुमान करना कठिन है। अथर्ववेद के उन्नीसवें काण्ड के ५३-५४वें सूक्त 'कालसूक्त' नाम से प्रसिद्ध हैं। ये कालसूक्त ही कालवाद के उद्गम के स्रोत प्रतीत होते हैं। इनमें निहित काल तत्त्व का ही विकास उपनिषद्, पुराण, महाभारत, ज्योतिर्विद्या आदि में हुआ है। कालवादियों के संबंध में उल्लेख गौडपाद कारिका में प्राप्त होता है, वहाँ कहा है- कालात् प्रसूतिं भूतानां मन्यन्ते कालचिन्तकः। श्वेताश्वतरोपनिषद् में भी जगत् के कारणों की चर्चा में काल का भी कथन हुआ है। शिवपुराण में कालवाद का सिद्धान्त सम्पूर्ण रूप में अभिव्यक्त हुआ है कालादुत्पाते सर्व, कालादेव विपद्यते।। न कालनिरपेक्ष हि क्वचित्किंचिद्धि विद्यते।। कालवाद का यदि व्यवस्थित एवं विकसित रूप देखना हो तो ज्योतिर्विद्या के ग्रन्थ इसके निदर्शन है। क्योंकि ज्योतिर्विद्या कालगणना पर आधारित विद्या है। जिसमें ग्रह, नक्षत्रों के साथ काल ही प्रमुख कारण के रूप में अंगीकार किया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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