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जैनदर्शन में कारण- कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण
१. ज्ञानावरण कर्म- ज्ञान जीव का स्वभाव एवं लक्षण है तथा ज्ञानावरण कर्म का स्वभाव ज्ञान का आच्छादन करना है।
२. दर्शनावरण कर्म- जीव की सम्यक् दृष्टि या सोच को बाधित करने का स्वभाव दर्शनावरणीय कर्म का है।
३. वेदनीय कर्म- जीव को सुख-दु:ख वेदन कराना वेदनीय कर्म का स्वभाव है।
४. मोहनीय कर्म- यह दो प्रकार का है- १. दर्शन मोहनीय २. चारित्र मोहनीय। दर्शन मोहनीय कर्म का स्वभाव जीव के सम्यक् दर्शन को प्रकट न होने देना है | चारित्र मोहनीय का स्वभाव क्रोध, मान, माया और लोभ रूप चार कषायों का और स्त्रीवेद - पुरुषवेद - नपुंसक वेद, हास्य रति आदि ९ नोकषायों का जीव को अनुभव कराना है।
५.
६. गोत्र कर्म- जीव को उच्चता एवं नीचता का अनुभव कराना गोत्र कर्म का
स्वभाव है।
19.
नाम कर्म- जीव को शरीर, इन्द्रिय, अंगोपांग आदि की प्राप्ति कराने का कार्य नाम कर्म का स्वभाव है।
८.
आयुष्य कर्म- इस कर्म का स्वभाव निश्चित अवधि तक जीव को विभिन्न भवों में भ्रमण कराना है।
अन्तराय कर्म- जीव के दान, लाभ, भोग-उपभोग एवं वीर्य लब्धियों को बाधित करने का स्वभाव अन्तराय कर्म का माना जाता है।
जैनदर्शन में नियति की कारणता
जैन दर्शन में नियतिवाद का निरसन प्राप्त होता है। उसकी चर्चा नियतिवाद से सम्बद्ध अध्याय में की गई है, तथापि जैन दर्शन की कुछ ऐसी मान्यताएँ हैं जो नियति को कथंचित् स्वीकार भी करती हैं। नियति को पुष्ट करने वाली अथवा उसे अपने ग्रन्थों में स्थान देने वाली कतिपय मान्यताएँ इस प्रकार हैं
कालचक्र में नियति की कारणता
(१) जैन धर्म में कालचक्र का एक नियत क्रम स्वीकार किया गया है। नियत कालक्रम २० कोटाकोटि सागरोपम का मान्य है जो उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी
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