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________________ पुरोवाक् सृष्टि की उत्पत्ति का क्रम हो, बन्धन या मुक्ति की घटना हो अथवा जीवन के अन्य सामान्य कार्य हों, सभी के सम्बन्ध में कार्य-कारण सिद्धान्त को समझना आवश्यक होता है। कार्य-कारण सिद्धान्त विश्व की सभी विद्याओं से जुड़ा हुआ है। विज्ञान, राजनीति, साहित्य, चिकित्सा, अर्थशास्त्र, दर्शनशास्त्र आदि सभी क्षेत्रों में कारण-कार्य सिद्धान्त का महत्त्व है। दर्शनशास्त्र की हम बात करें तो यह प्रत्येक दर्शन की तत्त्वमीमांसा का विषय बनता है। अतः सभी दार्शनिक अपने कार्य-कारण सिद्धान्त को तात्त्विक मीमांसा के आधार पर व्याख्यायित करते हैं। जैन दार्शनिक अनेकान्तवादी हैं, फलस्वरूप उनका कारण-कार्य सिद्धान्त सदसदात्मक है। जैसे बीज रूपी कारण सत् भी है और असत् भी है उसी प्रकार वृक्ष रूपी कार्य भी सत् व असत् दोनों हैं। बीज अपने स्वरूप से सत् है तथा वृक्ष के उत्पन्न होने से बीज की सत्ता नष्ट हो जाती है तब वह असत् होता है। वृक्ष जब बीज रूप में था तब वह असत् था और वृक्ष के रूप में वह सत् होता है। इस प्रकार 'सदसत्कार्यवाद' सिद्धान्त जैन दर्शन के कारण-कार्यवाद के सम्यक् स्वरूप को प्रकट करता है। जैनमतानुसार प्रत्येक पदार्थ या तत्त्व नित्यानित्यात्मक, सामान्यविशेषात्मक, द्रव्यपर्यायात्मक, भेदाभेदात्मक और सदसदात्मक है। कारण-कार्य सिद्धान्त के आधारभूत पदार्थ सदसदात्मक होने से जैन दर्शन में यह सिद्धान्त सदसत्कार्यवाद के नाम से प्रचलित है। एकान्त सत् अथवा एकान्त असत् पदार्थ न तो स्वयं उत्पन्न होते हैं और न ही किसी को उत्पन्न करने में समर्थ होते हैं। अत: उनमें कार्यकारणभाव भी नहीं बनता। कार्यकारणभाव वहीं होता है जहां कथंचित् सत्त्व और कथंचित् असत्त्व हो। इसलिए जैन दर्शन में सदसत्कार्यवाद को स्वीकार किया गया है। द्रव्य की दृष्टि से उसमें सत्कार्यवाद को महत्त्व दिया गया है तथा पर्याय की दृष्टि से असत्कार्यवाद स्वीकार किया गया है। दोनों के सम्मिलित स्वरूप में सदसत्कार्यवाद अंगीकृत है। अनेकान्तवादी जैन दार्शनिकों ने कारण-कार्यवाद पर विभिन्न दृष्टियों से विचार किया है, जिनमें प्रमुख हैं १. द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव और भव की कारणता २. षड्द्रव्यों की कारणता ३. षट्कारकों की कारणता ४. निमित्त और उपादान की कारणता ५. पंच समवाय की कारणता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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