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________________ ५२२ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण नले वीरिए पुरिसक्कारपरक्कमें तं चेव जाव अफासे मन्नत्ते २२० अर्थात् उत्थान, बल, कर्म, वीर्य, पुरुषकार, पराक्रम- ये सभी जीव के उपयोग विशेष हैं। धर्माचरण के लिए उत्तराध्ययन सूत्र में कहा गया है- धम्म चर सुदुच्चरं।१ आचारांग सूत्र में अप्रमत्त होकर सदा धर्म में पराक्रम करने का बहुत ही सुन्दर उपदेश है- अप्पमत्ते सया परकम्मेज्जासि २२२ संदर्भ १. (१) सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात्। स भूमिं विश्वतो वृत्वात्यतिष्ठद् दशाङ्गुलम् -ऋग्वेद मण्डल १०, अध्ययन ४, सूक्त ९०, मंत्र १ (२) सहस्रबाहुः पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात्। स भूमिं विश्वतो वृत्वात्यतिष्ठद् दशाङ्गलम्।। -अथर्ववेद काण्ड १९, सूक्त ६, मंत्र १ २. (१) 'ततो विष्वङ व्यक्रामत्साशनानशुते अमि' -ऋग्वेद, मण्डल १०, अध्ययन४, सूक्त ९०, मंत्र ४ (२) 'तथा व्यक्रामद् विष्वङशनानशने अनु' -अथर्ववेद, काण्ड १९, सूक्त ६, ___ मंत्र २ ३. (१) अथर्ववेद १९.६.४ ।। (२) ऋग्वेद में यह मंत्र इस प्रकार है पुरुष एवेदं सर्व यद्भूतं यच्च भाव्यम्। उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति।। -ऋग्वेद मण्डल १०, अध्ययन ४, सूक्त ९०, मंत्र २ ४. (१) ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद् बाहू राजन्यः कृतः। उरू तदस्य यद्वेश्यः पद्भयां शूद्रो अजायतः।। -ऋग्वेद मण्डल १०, अध्ययन४, सूक्त ९०, मंत्र१२ (२) ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद् बाहू राजन्योऽभवत्। मध्यं तदस्य यद् वैश्यः पद्भयां शूद्रो अजायत।। -अथर्ववेद १९.६.६ चन्द्रमा मनसो जातचक्षोः सूर्यो अजायत। मुखादिन्द्रश्चाग्निश्च प्राणाद् वायुरजायत।। नाभ्या आसीदन्तरिक्ष शीर्णो द्यौः समवर्तत। पदभ्यां भूभिर्दिशः श्रोत्रात् तथा लोकाँ अकल्पयन्।। (१) ऋग्वेद मण्डल १०, अध्ययन ४, सूक्त ९०, मंत्र १३-१४, (२) अथर्ववेद १९.६.७,८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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