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पुरुषवाद और पुरुषकार ५०३ २. सांवेगिक काम मन के संवेग रूप काम की स्थिति सांवेगिक काम कहलाता है। इसमें रजोगुण की अधिकता व सत्त्व गुण का समावेश होता है। यह मानसिक सुख की अवस्था है।
३. आध्यात्मिक व नैतिक काम- इसमें मानव आत्मसाक्षात्कार को जीवन का लक्ष्य बनाता है। इसमें केवल सत्त्व गुण ही शेष रहता है। इस अवस्था में किसी अन्य वस्तु की कामना नहीं रहती है। निष्काम भाव के कारण यह ब्रह्म रूप काम की स्थिति है।
काम के अन्तर्गत व्यक्ति के अभ्युदय एवं निःश्रेयस के लिए तीनों अवस्थाओं की स्थिति आवश्यक है।
मोक्ष - पुरुषार्थ
'त्रिवर्गस्य निवृत्तिर्मोक्ष उच्यते' अर्थात् त्रिवर्ग की निवृत्ति ही मोक्ष है। यही चतुर्थ पुरुषार्थ है । शाश्वत आनन्द की अवस्था ही मोक्ष है। अपूर्णता से पूर्णता और अभाव से स्वभाव की ओर जाना मोक्ष है। मोक्ष की साधना मानव की शक्ति व क्षमता का प्रयोगात्मक रूप है। मोक्ष प्राप्ति हेतु मानव अज्ञान व बन्धन को दूर कर शारीरिक व मानसिक शुद्धि के द्वारा आत्मा के मूल स्वरूप का साक्षात्कार करता है। बन्धन से निष्कृति मोक्ष है। ब्रह्मबिन्दूपनिषद् में कहा है- 'बंधाय विषयासक्तं मुक्त्यै निर्विषयं स्मृतम् - १७९ अर्थात् विषयासक्त मन बन्ध का कारण है और निर्विषय मन मुक्ति का कारण है।
गीता में मोक्ष के अमृतत्व अनुभव के संबंध में कहा है'जन्ममृत्युजरादुःखै - र्विमुक्तोऽमृतमश्नुते १० जीव जन्म, मृत्यु, जरा के दुःखों से मुक्त होकर अमृतरूप आत्मा का अनुभव करता है। जिस पद को पाकर व्यक्ति आध्यात्मिक, आधिदैविक व आधिभौतिक दुःख - बंधनों से मुक्त हो जाता है, उसे मोक्ष कहते हैं।
जैन दर्शन में धर्म-पुरुषार्थ की प्रमुखता
जैनदर्शन में उत्तरकालीन साहित्य में पुरुषार्थ-चतुष्टय की चर्चा मिलती है । १८१ किन्तु जैनागमों में मुख्यतः धर्म एवं मोक्ष पुरुषार्थ को ही मुख्य प्रतिपाद्य माना जा सकता है। अर्थ और काम का उपदेश जैनागम नहीं करते। उनमें धर्म और मोक्ष की ही प्रेरणा प्राप्त होती है। अर्थ और काम पर जैन दर्शन के अनुसार धर्म का नियन्त्रण आवश्यक है। मोक्ष साध्य है और धर्म साधन है। धर्म की साधना से ही मोक्ष
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