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पुरुषवाद और पुरुषकार ५०१ विकास या पतन होता है। इसीलिए भगवान महावीर कहते हैं- 'उट्ठिए नो पमायए ६७ अर्थात् उठो प्रमाद मत करो। जैनदर्शन के अनुसार जब तक जीव या आत्मा स्वयं अहिंसा, संयम और तप में पराक्रम नहीं करता तब तक वह बंधन से मुक्त नहीं हो सकता। भारतीय संस्कृति में पुरुषार्थ- चतुष्टय
भारतीय संस्कृति में त्रिवर्ग एवं पुरुषार्थ चतुष्टय की चर्चा मिलती है। पुरुषार्थ के त्रिवर्ग और चतुर्वर्ग का प्रतिपादन अमरकोश के निम्न श्लोकांश से होता है- "त्रिवर्गो धर्मकामर्थैः चतुर्वर्गः समोक्षकै: '१६८ धर्म, अर्थ एवं काम को त्रिवर्ग एवं मोक्ष सहित त्रिवर्ग को चतुर्वर्ग कहा गया है। यह चतुर्वर्ग पुरुषार्थ चतुष्टय के नाम से अधिक प्रसिद्ध है। अग्निपुराण में कहा है
____धर्मार्थकाममोक्षाश्च पुरुषार्था उदाहृता:१६९ अर्थात् धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष पुरुषार्थ कहे गए हैं।
भारतीय विचारधारा में पुरुष की उत्पत्ति के साथ ही स्वयं ब्रह्मा ने पुरुषार्थ की व्यवस्था की है। प्रारम्भ में त्रिवर्ग की ही व्यवस्था थी। कालान्तर में मोक्ष को भी पुरुषार्थ चतुष्टय में स्थान दिया गया। धर्म-पुरुषार्थ
महर्षि कणाद ने धर्म पुरुषार्थ को मोक्ष में सहायक मानते हुए कहा'यतोऽभ्युदय-निःश्रेयससिद्धिः स धर्म: १७° अर्थात् धर्म वही है जिससे अभ्युदय एवं निःश्रेयस की सिद्धि हो। ऋग्वेद में धर्म ऋत के अर्थ में प्रकाशित हुआ है। छान्दोग्योपनिषद में 'धर्म' शब्द आश्रमों के कर्तव्यों की ओर संकेत करता है। स्मृतियों में 'धर्म' को वर्ण-धर्म के अन्तर्गत समाविष्ट किया गया है। धर्म की कुछ अन्य परिभाषाएँ दी हैं, यथा- 'अहिंसा परमो धर्म: १७२ 'आनृशंस्यं परो धर्म: ४७३ 'आचारः परमो धर्मः'।२७४ ऋग्वेद में ऋतु के शाश्वत नियम के रूप में धर्म का स्वरूप व्यापक था। धर्म में प्राकृतिक, पारमार्थिक, सामाजिक, वैयक्तिक सभी पक्षों का सुन्दर समावेश है। धर्म मानव से संबंधित है। अतः मानव के सभी पक्ष धर्म से सम्बद्ध हैं।
भारतीय विचारधारा में धर्म साध्य और साधन दोनों अर्थों में प्रयुक्त होता है। ऋत की अवस्था में धर्म साध्य है। धीरे-धीरे धर्म का साधन रूप विकसित हुआ। यह अर्थ, काम और मोक्ष का साधन कहलाने लगा। धर्म-पुरुषार्थ मोक्ष की दिशा में आगे बढ़ने की सीढ़ी है।
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