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११.
४३० जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण
होता। किन्तु जीव उस कर्म-पुद्गल का ग्रहण करते ही उसे शुभ या अशुभ रूप में परिणत कर देता है। राग-द्वेष से स्निग्ध जीव कर्म-वर्गणा के विद्यमान कर्म योग्य पुद्गलों को ग्रहण करके पाप-पुण्य में परिणत करता है। कर्मों का बंध भले ही अनादि हो, किन्तु उनका अन्त संभव है। समस्त अष्टविध कर्मों का क्षय होने पर मोक्ष होता है- 'कृत्स्नकर्मक्षयो मोक्षः ३७० अपने भाग्य का निर्माण जीव स्वयं करता है तथा वही उसमें अपने
पुरुषार्थ के द्वारा कथंचित् परिवर्तन भी कर सकता है। १२. कर्म की दशा अवस्थाएँ स्वीकार की गई हैं- बंध, उदय, उदीरणा, सत्ता,
उद्वर्तना, अपवर्तना, संक्रमण, उपशमन, निधत्ति और निकाचन। इन्हें दश कारण भी कहा गया है। कर्म सिद्धान्त में इन दश अवस्थाओं का विशेष
महत्त्व है। १३. प्रायः भारतीय दर्शन में यह माना जाता है कि जीव ने जिस प्रकार के
कर्मों का अर्जन किया है उसे उनका वैसा ही फल भोग करना पड़ता है। जैन दर्शनानुसार पूर्वबद्ध कर्मों का उत्कर्षण, अपकर्षण और संक्रमण संभव है। पहले बाँधे गए कर्मों की फलदान अवधि अर्थात् स्थिति को वर्तमान के शुभाशुभ परिणामों से घटाया या बढाया जा सकता है। वर्तमान के शुभ परिणामों के द्वारा पूर्वबद्ध पाप कमों की स्थिति घटती है तथा पुण्य कर्मों की स्थिति बढती है। घटने को अपकर्षण या अपवर्तन तथा बढने को उत्कर्षण या उद्वर्तन कहा जाता है। इसी प्रकार कर्मों की फलदान शक्ति अर्थात् अनुभाव या अनुभाग में भी शुभाशुभ परिणामों से पूर्वबद्ध कमों में उत्कर्षण एवं अपकर्षण संभव है। पूर्वबद्ध कर्मों का बद्धयमान कर्मों में वर्तमान के भावों के अनुसार संक्रमण संभव है। इस प्रकार जैन दर्शन का मन्तव्य है कि पूर्वबद्ध कमों को उसी रूप में भोगना अनिवार्य नहीं है। उनमें यथोचित परिवर्तन भी संभव है। कुछ ही कर्म ऐसे हैं जिन्हें निकाचित कर्म कहा जाता है, उनमें परिवर्तन किसी भी
प्रकार संभव नहीं होता। १४. कर्म मूर्त है क्योंकि उसका कार्य शरीरादि मूर्त हैं। वह इसलिए भी मूर्त है
क्योंकि उससे संबंध होने पर सुख-दुःखादि का अनुभव होता है। मूर्त होने के साथ वह परिणामी भी है।
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