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४०२ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण
नारकों में तीव्र परिणाम वाला सतत दुःख लगा ही रहता है। तिर्यचों में उष्ण, ताप, भय, भूख, तृषा इन सबका दुःख होता है तथा अल्प सुख भी होता है। मनुष्यों को नाना प्रकार के मानसिक तथा शारीरिक सुख और दुःख होते हैं, किन्तु देवों को तो शारीरिक सुख ही होता है, अल्प मात्रा में ही मानसिक दुःख होता है।२६७ परलोक का आधार : कर्म
दसवें गणधर मेतार्य द्वारा परलोक विषय में प्रश्न करने पर भगवान फरमाते हैं- "इत्ते च्चिय न स कत्ता भोत्ता य अओ वि नस्थि परलोगो २६८ अभिप्राय यह है कि जब तक जीव में कर्मों का कर्तृत्व एवं भोक्तृत्व भाव है तब तक वह परलोक गमन करता है। भोक्तृत्व एवं कर्तृत्व के अभाव में परलोक की मान्यता व्यर्थ है। मूर्त कर्म का अमूर्त आत्मा से संबंध
कर्म मूर्त यानी रूप-रस-गंध-स्पर्श युक्त है जबकि आत्मा रूप-रस-गंधस्पर्श से रहित अरूपी या अमूर्त है। कर्म और आत्मा में संयोग और समवाय संबंध दोनों होते हैं, जिसे विशेषावश्यक भाष्य में उदाहरण देते हुए इस प्रकार कहा गया है"यथा मूर्तस्य घटस्यामूर्तेन नभसा संयोगलक्षणः संबंधस्तथाऽत्रापि जीवकर्मणोः। यथा वा दव्यास्यांगुल्यादेः क्रिययाऽऽकुंचनादिकया सह समवायलक्षण: संबंधः, तथाऽत्रापि जीव-कर्मणोरयमिति' २६९ घट मूर्त है, फिर भी उसका संयोग संबंध अमूर्त आकाश से होता है, इसी प्रकार मूर्त कर्म का अमूर्त आत्मा से संयोग होता है। अंगुली मूर्त द्रव्य है, फिर भी आकुंचनादि अमूर्त क्रिया से उसका समवाय संबंध है। इसी प्रकार जीव और कर्म का समवाय संबंध भी सिद्ध होता है। जीव-कर्म का अनादि संबंध
जीव और कर्म का संबंध अनादि है। इस तथ्य को अनुमान प्रमाण से विशेषावश्यक भाष्य में प्रतिज्ञा, हेतु और दृष्टान्त के माध्यम से इस प्रकार कहा है
प्रतिज्ञा- अनादि: कर्मणः संतान इति। हेतु- देहकर्मणोः परस्परं हेतुहेतुमद्भावादिति। दृष्टान्त- बीजाउंकुरयोरिवेति।
देह और कर्म में परस्पर कार्य-कारण भाव है, अत: कर्म-सन्तति अनादि है। जैसे-बीज से अंकुर और अंकुर से बीज की बीजांकुर-सन्तति अनादि है, वैसे ही देह
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