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________________ ३९४ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण मोक्ष आत्मा की वह विशुद्धावस्था है जिसमें उसका किसी भी विजातीय तत्त्व के साथ संयोग नहीं रहता और सम्पूर्ण विकारों का अभाव होकर आत्मा स्वरूप में स्थिर हो जाती है। यह स्थिति सम्पूर्ण कर्मों के आत्यन्तिक क्षय होने पर होती है। अतः तत्त्वार्थ सूत्रकार कहते हैं: ___ "कृत्स्नकर्मक्षयो मोक्षः १२३० अर्थात् कर्मों का अत्यन्त अभाव हो जाना, सम्पूर्णत: नष्ट हो जाना मोक्ष है। निष्कर्ष के रूप में कहा जा सकता है कि कर्मबन्धन एवं मोक्ष जीवन के दो पहलू हैं, जहाँ मानसिक विकारों के वशीभूत होकर बन्धनावस्था में आत्मा अपने सम्यक् दर्शन-ज्ञान-चारित्र को खो बैठती है वहीं मोक्षावस्था में वह समस्त मानसिक विकारों का दमन कर शुद्ध-विशुद्ध एवं शाश्वत स्थिति प्राप्त करती है। विशेषावश्यक भाष्य में कर्म-विवेचन जिनभद्रगणि रचित (६-७वीं शती) विशेषावश्यक भाष्य में ग्यारह गणधरों के संशयों का भगवान महावीर द्वारा समाधान समुपलब्ध होता है। यह चर्चा 'गणधरवाद' के नाम से प्रसिद्ध है। लगभग सभी गणधरों के संशयों को दूर करते हुए भगवान ने कर्म सिद्धान्त को स्थापित किया है। द्वितीय गणधर अग्निभूति ने कर्म के विषय में प्रश्न उपस्थित किया तब भगवान महावीर ने कर्म के अस्तित्व को सिद्ध करने के साथ कर्म को अदृष्ट, मूर्त, परिणामी, विचित्र और अनादिकाल से जीव के साथ सम्बद्ध बतलाया। पंचम गणधर सुधर्मा के साथ इस लोक और परलोक के सादृश्य-वैसादृश्य की चर्चा हुई। इस अवसर पर भी लोक और परलोक के मूल में कर्म की सत्ता को सिद्ध करते हुए संसार को कर्म-मूलक कहा। बंध और मोक्ष के विषय में छठे गणधर मण्डिक से वार्ता है, अत: उसमें भी जीव का कर्म के साथ बंध और उसकी कर्म से मुक्ति की ही चर्चा है। नौवें गणधर अचलभ्राता की चर्चा का मुख्य विषय पुण्य-पाप है। उसमें शुभ कर्म और अशुभ कर्म के अस्तित्व की चर्चा ही प्रधान है। इस प्रसंग पर द्वितीय गणधर से हुई चर्चा के कई विषयों की पुनरावृत्ति करने के पश्चात् कर्म-संबंधी अनेक नये तथ्य भी उद्घाटित हुए हैं, जैसे कि कर्म के संक्रम का नियम, कर्म-ग्रहण की प्रक्रिया, कर्म का शुभाशुभ रूप में परिणमन, कर्म के भेद इत्यादि। दसवें गणधर मेतार्य से परलोक विषयक चर्चा है। उसमें भी यह तथ्य स्वीकृत है कि परलोक कर्माधीन है। अंतिम गणधर प्रभास के साथ हुई निर्वाण संबंधी चर्चा में भी यह प्रतिपादित किया गया है कि अनादि कर्म-संयोग का नाश ही निर्वाण है। इस प्रकार भिन्न-भिन्न गणधरों के साथ होने वाले वादों में कर्म-चर्चा विविध रूप से सामने आई है। सातवें व आठवें गणधरों की चर्चा में क्रमश: देवों और नारकियों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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