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________________ ३९२ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण बहुआरम्भ और बहुपरिग्रह नरकायु के बन्ध हेतु हैं। इसके अतिरिक्त कर्मग्रन्थ में रौद्र परिणाम को नरक का कारण माना है।२१° स्थानांग सूत्र में महापरिग्रह, महारम्भ, पंचेन्द्रिय-वध और मांसभक्षण को नरकायु के हेतु स्वीकार किए गये है।२११ माया तियचायु का कारण है। गूढ हृदय वाले, शठ अर्थात जिसकी जबान मीठी है, पर दिल में जहर भरा है, सशल्य अर्थात् प्रतिष्ठा कम होने के भय से पाप को प्रकट न करने वाले तिर्यचायु का बन्ध करते हैं- ऐसा कर्मग्रन्थ में मान्य है।१२ १. मायाचार, दूसरों को ठगना, असत्य वचन बोलना, कम-ज्यादा तोल-माप करना- ये चार कारण स्थानांग में कहे हैं।२१३ २. अल्प आरम्भ, अल्प परिग्रह, स्वभाव में मृदुता और सरलता ये मनुष्यायु के बन्ध हेतु हैं। कर्मग्रन्थ के अनुसार अल्प कषाय, दान में रुचि और मध्यम गुण अर्थात् क्षमा मृदुता आदि मनुष्यायु के कारण हैं।२१४ ३. स्थानांग के अनुसार सरलता, विनयशीलता, करुणा और अहंकार एवं मात्सर्य से रहितता मानवायु के निमित्त हैं।२१५ ४. सरागसंयम, संयमासंयम, अकामनिर्जरा और बाल तप ये देवायु के बन्ध हेतु हैं। स्थानांग में भी ये चार ही देवायु के कारण हैं।२९६५. कर्मग्रन्थ में अविरति को भी देवायु का कारण माना है।२१७ ६. नामकर्मबन्ध के कारण "योगवक्रता विसंवादनं चाशुभस्य नाम्नः १२१८ "विपरीतं शुभस्य'२१९ मन-वचन और काय की वक्रता और विसंवाद अशुभ नाम कर्म का तथा मन-वचनकाया की सरलता और संवाद शुभ-नामकर्म का कारण है। कर्मग्रन्थ में कहा हैनिष्कपट और गौरव रहित जीव शुभ नाम को तथा कपटी और अंहकारी जीव अशुभ नाम को बांधता है।२२० ७. गोत्र कर्मबन्ध के कारण ___"परात्मनिन्दाप्रशंसे सदसगुणाच्छादनोद्भावने च नीचैर्गोत्रस्य'२२१ "तद्विपर्ययो नीचैर्वृत्त्यनुत्सेको चोत्तरस्य'२२२ पर-निन्दा, आत्मप्रशंसा, दूसरों के सद्गुणों का आच्छादन और असद्गुणों का प्रकाशन ये नीच गोत्र के बन्ध के हेतु है। इसके विपरीत पर-प्रशंसा, आत्म-निन्दा, सद्गुणों का प्रकाशन, असद्गुणों का गोपन और नम्रवृत्ति एवं निरभिमानता ये उच्च गोत्र के बन्ध के हेतु है। कर्मग्रन्थ के अनुसार आठ प्रकार के मद से रहित, गुणग्राही दृष्टि वाला, अध्ययन-अध्यापन में रुचि रखने वाला तथा भक्त उच्चगोत्र को प्राप्त करता है और इसके विपरीत आचरण करने वाला नीच गोत्र को प्राप्त करता है।२२३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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