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पूर्वकृत कर्मवाद ३५३ गीता में कर्म का अभिप्राय ऐसे कार्यों से है जिनका शुभाशुभ फल मनुष्यों को जन्म-जन्मान्तर में भोगना पड़ता है। वर्णाश्रम के अनुसार किये जाने वाले स्मार्त कार्यों को भी गीता में कर्म कहा गया है। तिलक के अनुसार गीता में कर्म शब्द केवल यज्ञ, याग एवं स्मार्त कर्म के ही संकुचित अर्थ में प्रयुक्त नहीं हुआ है। मनुष्य जो कुछ भी करता है या जो कुछ भी नहीं करने का मानसिक संकल्प या आग्रह रखता है, वे सभी कायिक या मानसिक प्रवृत्तियाँ भगवद् गीता के अनुसार कर्म ही है। इस प्रकार पूर्ववर्ती साहित्य की तुलना में गीता में कर्म शब्द का प्रयोग व्यापक अर्थ में हुआ है।
'कर्म' शब्द का बहुशः प्रयोग इस ग्रन्थ में प्राप्त होता है। रामानुज भाष्य में कर्म को 'कर्मयोगादिकम ६० शब्दों से परिभाषित किया गया है। 'कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन १ श्लोकांश में कर्म को कर्त्तव्य के अर्थ में कहा गया है। अन्यत्र भी यह अर्थ संपादित हो रहा है।६२ "किं कर्म किमकर्मेति ६३ से कर्म और अकर्म पर भी विचार किया गया है।
___गीता में यह स्पष्ट संकेत है कि एक क्षण भी कर्म किये बिना नहीं रहा जा सकता। हम कर्म करने के लिए बाध्य हैं। श्वास लेना इत्यादि भी, जो हमारे शरीर को बनाये रखने के लिए अनिवार्य है, क्रिया ही है। अतः कर्म हमारे लिए स्वाभाविक है एवं उससे वंचित रह पाना असंभव है। इस प्रकार कर्मबंधन की प्रक्रिया भी अबाध गति से गतिशील है, किन्तु वे कर्म ही मानव के लिए बंधनकारी होते हैं जिनका संबंध अज्ञान से है। अज्ञान से अभिप्राय यहाँ कर्म करते समय कर्तृत्व भाव का विद्यमान रहना है। गीताकार अज्ञान को आसुरी सम्पदा में परिगणित करते हैं तथा आसरी सम्पदा को बंधनकारी बताते हुए कहते हैं- "निबंधायासुरी मता' अज्ञान के अतिरिक्त दम्भ, दर्प, अभिमान, क्रोध, पारुष्य (कठोर वाणी) को आसुरी सम्पदा में समाविष्ट किया गया है।६५ श्री कृष्ण कहते हैं कि दम्भ, मान एवं मद समन्वित दुष्टतापूर्ण आसक्ति (कामनाएँ) से युक्त तथा मोह (अज्ञान) से मिथ्यादृष्टि को ग्रहण कर मनुष्य असदाचरण से युक्त होकर संसार में परिभ्रमण करते हैं।६६
__ आसक्त और अनासक्त भाव से किए गए कर्म का फल गीता में स्पष्ट रूप से बताया गया है। फलेच्छा में आसक्ति रखने वाला पुरुष सदा कमों से बंधता है अर्थात् जन्ममरणशील होकर संसार में भ्रमण करता रहता है। अनासक्त भाव से संयुक्त पुरुष नैष्ठिकी शांति को प्राप्त करता है। जैसा कि कहा है
युक्तः कर्मफलं त्यक्त्वा, शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम्। अयुक्तः कामकारेण फले सक्तो निबध्यते।।६७
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