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________________ ३५० जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण अथवा अनेक प्राणियों की हिंसा की है इसी कारण आज इस जन्म में मेरे साथ यह पुत्र विछोह रूप संकट आया है। महाराज दशरथ के ये भाव स्पष्ट करते हैं कि पूर्वजन्म में जिस प्रकार का कर्म बांधा जाता है, उसे उस रूप में ही भोगा जाता है। कैकयी के हृदयविदारक वचनों को सुनने के बाद उन बातों के श्रवण करने का कारण खोजते हुए कहते हैं- 'दुःखमेवंविधं प्राप्तं पुराकृतमिवाशुभम् २ यह दुःख मुझे पूर्वकृत अशुभ कर्मों के कारण ही मिल रहा है। भारद्वाज ऋषि द्वारा उचित आतिथ्य ग्रहण करने को भी राम अपने द्वारा पूर्वजन्म में किए गए महान् पुण्य कर्मों का फल मानते हैं।" मरणासन्न बाली भी सुग्रीव के प्रति अपने द्वारा किए गए वैर को पूर्वजन्मों में किये गए पाप कर्मों का फल मानता है। रामायणकाल में यह धारणा विकसित हो गयी थी कि पूर्वजन्म के कर्मों के आधार पर ही व्यक्ति के वर्तमान एवं भावी जीवन की दिशा निर्धारित होती है। अपने पूर्वजन्म के किये गए कर्मों के अनुरूप मनुष्य वर्तमान एवं भविष्य के फल प्राप्त करता है। महाभारत में कर्म-विचार महाभारत में भी कर्म और कर्मफल का विस्तृत विवेचन उपलब्ध होता है। महाभारत में धर्मानुकूल आचरण को 'पुण्य और उससे प्रतिकूल आचरण को 'पाप' की संज्ञा दी गई है। पुण्य कर्म करने से मनुष्य की उन्नति होती है तथा पाप कर्म करने से अधोगति होती है। प्रत्येक प्राणी अपने किए हुए कमों का ही फल पाता है। जीव के वर्तमान जीवन के कमों से ही उसके भविष्य का जीवन निर्धारित होता है। इस प्रकार प्राणी अपने लिए अनुकूल अथवा प्रतिकूल परिस्थिति उत्पन्न करने में स्वयं उत्तरदायी शान्ति पर्व में कर्म और भोग के नियमानुसार आत्मा को अनन्त भवचक्र में एक शरीर से दूसरे शरीर में घूमने वाला कहा गया है। वहाँ उल्लेख है कि सूत का एक धागा जिस प्रकार भिन्न-भिन्न मनकों में जाता है, उसी प्रकार अपने कर्मों के वशीभूत होकर आत्मा मनुष्य, पशु, पक्षी आदि योनियों में भ्रमण करता रहता है। इन नाना योनियों में यह मनुष्य जिस-जिस शरीर से जो-जो कर्म करता है; उस-उस शरीर से उसी-उसी कर्म का फल भोगता है। इसीलिए उसे पूर्वकृत कर्मों के अनुरूप शुभाशुभ फल प्राप्त होते हैं क्योंकि शुभ और अशुभ फल कर्मजन्य हैं। मनुष्य की मृत्यु भी स्वकृत कर्मों के फलस्वरूप होती है। कोई दूसरा इसके विनाश का कारण नहीं है- इस प्रकार शोकाकुल युधिष्ठिर को सान्त्वना देते हुए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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