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________________ xl आधृत है वहाँ नियति के सम्बन्ध में ऐसा निश्चित नहीं कहा जा सकता, क्योंकि उसमें कर्मसिद्धान्त एवं पुरुषार्थ को महत्त्व नहीं दिया गया है। पुरुषवाद का सिद्धान्त सब कुछ जगत्स्रष्टा एवं संचालक परमपुरुष के अधीन मानता है। उससे ही जगत् उत्पन्न है तथा वही प्रत्येक कार्य को उत्पन्न करता है, उसी में सब विलीन होता है। यह पुरुषवाद ही ब्रह्मवाद एवं ईश्वरवाद के रूप में विकसित हुआ। पुरुष का अर्थ जब जीव करते हैं तो जीव की क्रिया अथवा पुरुषकार/पुरुषार्थ का स्वरूप उभरकर आता है, जो कार्य की उत्पत्ति में एक महत्त्वपूर्ण कारण है। जैनदर्शन को इसकी कारणता अभीष्ट है।। निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि जैनदर्शन के कारण-कार्य सिद्धान्त के ढांचे में पंचकारण-समवाय का सिद्धान्त सर्वथा उपयुक्त है। यह जैनदर्शन की अनेकान्तवादी, नयवादी एवं समन्वयवादी दृष्टि का परिचायक है। इस सिद्धान्त का प्रारम्भ जहाँ सिद्धसेनसूरि से हुआ है वहाँ हरिभद्रसूरि, मलयगिरि, शीलांकाचार्य अभयदेवसूरि, यशोविजय आदि दार्शनिकों ने इसे पुष्ट किया है। जैनदर्शन में पहले से स्वीकृत द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव एवं भव की कारणता से इस पंचकारणसमवाय का कोई विरोध नहीं है, अपितु इन पंच कारणों का द्रव्य, क्षेत्र आदि में समावेश किया जा सकता है। उदाहरणार्थ काल को काल में, स्वभाव एवं पूर्वकृत कर्म को भाव में, नियति को भव एवं क्षेत्र में, पुरुषार्थ को जीवद्रव्य एवं भाव (जीव के भाव) में समाहित किया जा सकता है। डॉ. श्वेता जैन ने इस पुस्तक में कालवाद, स्वभाववाद, नियतिवाद, पूर्वकृतकर्मवाद एवं पुरुषवाद/पुरुषकार पर भारतीय परम्परा के ग्रन्थों से दुर्लभ सामग्री का संयोजन कर महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। कालवाद, स्वभाववाद, नियतिवाद एवं पुरुषवाद पर अद्यावधि कोई स्वतन्त्र ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है, न ही एक साथ इतनी विपुल सामग्री का कहीं संयोजन हुआ है। अत: यह इन वादों की जानकारी के लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण एवं उपादेय है। इस ग्रन्थ की तीन प्रमुख विशेषताएँ हैं। एक तो यह कि इसमें जैनदृष्टि से कारणकार्यव्यवस्था का प्रतिपादन हुआ है, दूसरा यह कि इसमें कालवाद, स्वभाववाद आदि पाँचों कारणसिद्धान्तों पर वेदों से लेकर जैनदर्शन के ग्रन्थों में प्राप्त विवेचन के आधार पर व्यवस्थित रूप से सामग्री संयोजित की गई है। तीसरी विशेषता है कि इस ग्रन्थ में जैनदृष्टि से काल, स्वभाव, नियति, पूर्वकृतकर्म और पुरुष/पुरुषार्थ की कथंचित् कारणता सिद्ध की गई है। मैं डॉ. श्वेता जैन के उज्ज्वल शैक्षिक भविष्य हेतु शुभकामना करता हूँ। धर्मचन्द जैन आचार्य, संस्कृत-विभाग जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय जोधपुर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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