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________________ ३४८ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण है। इस संसार में ऐसा कोई नहीं है जो प्रारब्ध के वश में होकर न रहता हो, प्राणियों की सब चेष्टाएँ दैवाधीन हैं। मत्स्यपुराण में दैव को इस प्रकार परिभाषित किया गया है- 'स्वमेव कर्म दैवाख्यं विद्धि देहान्तरार्जितम् ३३ अर्थात् दैव नामक कर्म स्वयं के द्वारा किया हुआ ऐसा कर्म है जो दूसरे (पूर्वजन्म) देह के द्वारा अर्जित है। इस संसार में बहत सी बातें ऐसी हैं जो भाग्याधीन होती हैं, जिसमें पुरुष का प्रयत्न निरर्थक रहता है। जैसे- संसार में जीव को प्राप्त होने वाला सुख और दुःख। अत: भाग्य को ही प्रबल मानकर न तो दुःख पाने पर संतप्त होना चाहिए और न सुख पाने पर हर्षित।३४ नारदीय महापुराण में 'दैव' शब्द का बहुशः प्रयोग हुआ है। यथा दैवात्सोऽपि गतो लोकं यमस्यात्र विहाय माम्। कान्तारे विजने चैका भ्रमन्ती दुःखपीडिताः।। दैवात्त्वत्सविधं प्राप्ता जीविताहं त्वयाधुना। इत्येवं स्वकृतं कर्म मह्यं सर्व न्यवेदयत्।।५ दैव अर्थात् भाग्य से वह भी यमलोक चला गया और दैव से ही निर्जन वन में दुःख से पीड़ित घूमती हुई मैं तुम्हारे पास पहुंच गई। तुम्हारे द्वारा मुझे जीवन दान दिया गया है, इसीसे मुझे स्वकृत कर्म ने सब कुछ निवेदन कर दिया है। अर्थात् अपने द्वारा किए गए पूर्वकृत कर्मों के कारण ही जीव को विभिन्न अवस्थाएँ भोगनी होती हैं। उपर्युक्त श्लोकों से स्पष्ट है कि जीवन में विभिन्न घटनाएँ दैव से घटित होती हैं। दैव का लक्षण करते हुए कहा है- 'दैवं तत्पूर्वजन्मनि संचिताः कर्मवासना: ६ अर्थात् पूर्व जन्मों में संचित कर्मवासनाएँ ही दैव है। आदिकाव्य रामायण में कर्म-चर्चा कर्मवाद का गहन विश्लेषण महाकाव्यों का प्रतिपाद्य विषय नहीं है, फिर भी प्रसंगानुसार इसकी चर्चा इनमें विभिन्न स्थलों पर दृष्टिगत होती है जिनसे इस काल में कर्मवाद की स्थापना एवं उसके विविध पक्षों के सामान्य स्वरूप और उनके विकास का अनुमान लगाया जा सकता है। आदि महाकाव्य रामायण में कर्मवाद का सामान्य स्वरूप निम्न शब्दों में प्रस्तुत हुआ है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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