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३४६ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण
की तरह पकता है अर्थात् जराजीर्ण होकर मर जाता है तथा अनाज की भाँति पुनः उत्पन्न हो जाता है। बृहदारण्यकोपनिषद् में एक दृष्टान्त आता है कि जिस प्रकार जोंक एक तृण के अन्त में पहुँचकर दूसरे तृणरूप आश्रय को पकड़कर अपने को सिकोड़ लेती है; उसी प्रकार यह आत्मा इस शरीर को छोड़कर अविद्या को प्राप्त कर दूसरे आधार का आश्रय ले अपना उपसंहार कर लेती है। जैसे सुनार सुवर्ण का भाग लेकर दूसरे नवीन और कल्याणतर (अधिक सुन्दर) रूप की रचना करता है, उसी प्रकार यह आत्मा इस शरीर को नष्टकर अन्य पित्र्य, गान्धर्व, देव, प्राजापत्य, ब्राह्म अथवा भूतों के नवीन और सुन्दर रूप की रचना करता है । २३
छान्दोग्योपनिषद् में तो जन्म-मरण के इस संसरण को स्पष्ट रूप से हेय कहा है- 'क्षुद्राण्यसकृदावतीनि भूतानि भवन्ति जायस्व प्रियस्वेत्येतत्तृतीय स्थानं तेनासौ लोको न संपूर्यते तस्माज्जुगुप्सेत तदेष श्लोकः ४ अर्थात् शूद्र या पापी बारंबार आने-जाने वाले प्राणी होते हैं। 'उत्पन्न होओ और मरो' यही उनका तृतीय स्थान होता है। इसी कारण यह परलोक नहीं भरता । अतः इस संसार गति से घृणा करनी चाहिए।
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श्वेताश्वतरोपनिषद् में कर्म को चेतन से अन्य यानी जड़ माना है। कर्मानुसार जीवात्मा अनुक्रम से शरीर को प्राप्त करता है। यह जीवात्मा स्वयं के कर्मों का कर्ता एवं भोक्ता है तथा अपने कर्मों से प्रेरित होकर नाना योनियो में विचरता है। २६ कर्म की जड़ता और जीव की चेतनता को समझने के पश्चात् जीव साधक बनकर सत्त्वादि गुणों से व्याप्त कर्मों को आरम्भ करके समस्त भावों को परमात्मा के प्रति समर्पण कर देता है। इस समर्पण से उन कर्मों का अभाव हो जाने पर पूर्वसंचित कर्म समुदाय का भी सर्वथा नाश हो जाता है। कर्मों का नाश हो जाने पर वह साधक परमात्म रूप को प्राप्त हो जाता है । २७
उपर्युक्त विवरणों से ऐसा प्रतीत होता है कि कर्मवाद पर उपनिषदों में वेदों की तुलना में कुछ अधिक गहराई से विचार हुआ है। यह सर्वविदित है कि जागतिक वैषम्य के कारण - संबंधी खोज में ही मुख्य रूप से कर्मवाद की स्थापना हुई। जहाँ पूर्वयुगीन वैदिक ऋषियों ने जगत् वैचित्र्य एवं वैयक्तिक विभिन्नताओं का कारण किन्हीं बाह्य तत्त्वों को मानकर संतोष कर लिया, वहाँ औपनिषदिक ऋषियों ने इन मान्यताओं की समीक्षा के द्वारा आन्तरिक कारण खोजने का प्रयास किया। औपनिषदिक चिन्तन में कारण की यथार्थ व्याख्या तो नहीं हुई फिर भी इतना तो कहा ही जा सकता है कि जागतिक वैविध्य के कारण संबंधी खोज में लोग प्रयत्नशील हो गए थे। इस प्रकार कर्मवाद के विश्लेषण में औपनिषदिक योगदान को नकारा नहीं जा सकता।
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