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________________ xxxvi पूर्वकृतकर्मवाद जैनदर्शन की प्रमुख विशेषता है, फिर भी जैनदार्शनिक पूर्वकृतकर्मवाद को ही एक मात्र कारण मानने का निरसन करते हैं तथा काल, स्वभाव, पुरुषार्थ आदि की कारणता को भी महत्त्व देते हैं। पुरुषवाद एवं पुरुषकार ( पुरुषार्थ ) : जैनदर्शन में इनका स्थान पंच कारणसमवाय में जैनदार्शनिक पंचम कारण के रूप में पुरुषार्थ/पुरुषक्रिया को महत्त्व देते हैं। वस्तुतः पुरुषार्थ/पुरुषक्रिया श्रमण परम्परा का प्रमुख वैशिष्ट्य है, जिसका जैनदर्शन में भी अप्रतिम स्थान है। जैनदर्शन पुरुषार्थवादी दर्शन है, जिसमें जीव ही अपने कर्मफल के लिए उत्तरदायी होता है। वह ही अपने समस्त बंधनों से मुक्त होने का सामर्थ्य रखता है तथा वह ही अपने कार्यों से बंधन को सुदृढ बनाता है। अहिंसा, संयम एवं तप का निरूपण जैनदर्शन में जीव के स्वातन्त्र्य एवं पराक्रम का द्योतक है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र स्वरूप त्रिरत्न जैनदर्शन में पुरुषकार/पुरुषार्थ के महत्त्व को प्रतिष्ठित करते हैं। __ जैनदर्शन जहाँ पुरुषकार/पुरुषार्थ को प्रमुख स्थान देता है वहाँ वह पुरुषवाद का निरसन करता है। पुरुषवाद के अनुसार जगदुत्पत्ति में एक पुरुष, ब्रह्म या ईश्वर ही कारण है। जैनदर्शन ऐसे पुरुषवाद को कतई स्वीकार नहीं करता। वह तो जगत् को अनादि एवं अनन्त मानता है। सिद्धसेनसूरि ने काल, स्वभाव आदि पंचकारण समवाय का प्रतिपादन करते समय जो "कालो सहाव णियई, पुव्वकयं पुरिसे कारणेगंता " आदि गाथा दी है उसमें 'पुरिसे' शब्द का प्रयोग किया है। 'परिसे' के दो अर्थ हो सकते हैं- एक वह परम पुरुष जो समस्त सृष्टि की उत्पत्ति का कारण है तथा दूसरे अर्थ के अनुसार वह पुरुष जिसे चेतन या जीव कहा जाता है। जैनदर्शन के सन्दर्भ में द्वितीय अर्थ ग्राह्य है, प्रथम नहीं, क्योंकि जैनदर्शन प्रथम अर्थ जगत्स्रष्टा पुरुष का तो निरसन करता है। यही कारण है कि जैनदार्शनिक हरिभद्रसूरि ने 'पुरिसे' के स्थान पर बीजविंशिका में 'पुरिसकिरियाओ' शब्द का प्रयोग किया है। पुरिसकिरियाओ का अर्थ है- पुरुष अर्थात् जीव की क्रिया। पुरुष या जीव की इस क्रिया को पुरुषकार अथवा पुरुषार्थ भी कहा जा सकता है। जैनदर्शन के पंचकारणसमवाय में पुरुषकार, पुरुषार्थ या पुरुषक्रिया शब्द का प्रयोग ही अभीष्ट है। उत्तरवर्ती कुछ आचार्यों ने यही अर्थ ग्रहण किया है। पुरुषवाद कारण-कार्य व्यवस्था का एक सिद्धान्त रहा है, जिसकी चर्चा वेदों में भी प्राप्त होती है। ऋग्वेद में इस पुरुष का वर्णन 'सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः तह भव्वत्तं जं कालनियइपुव्वकयपुरिसकिरियाओ। अक्खिवइ तह सहावं ता तदधीणं तयं पि भवे।। - बीजावेशिका, ९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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