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________________ ३०८ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण नियतिकृतनियमरहितां हादैकमयीमनन्यपरतन्त्राम्। नवरसरुचिरां निर्मितिमादधती भारती कवेर्जयति।।२६३ काव्यप्रकाश की बालचित्तानुरंजनी टीका, विवेक टीका, दीपिका टीका, सम्प्रदायप्रकाशिनी टीका, सुधासागर टीकाओं में नियति के स्वरूप का प्रकाशन किया गया है। उन्होंने असाधारण धर्म या नियामक तत्त्व के रूप में, कर्म की अपर पर्याय के रूप में, अदृष्ट के रूप में तथा दैव के रूप में नियति शब्द की व्याख्या की है। बौद्ध त्रिपिटक में सूत्रपिटक के अन्तर्गत दीघनिकाय में गोशालक ने बुद्ध के प्रश्न का उत्तर देते हुए अपने मत को स्पष्ट किया है- “प्राणियों के दुःख का कोई हेतु या प्रत्यय नहीं है। बिना हेतु और प्रत्यय के ही प्राणी दुःखी होते हैं। प्राणियों की विशुद्धि का भी कोई हेतु या प्रत्यय नहीं है। बिना हेतु और प्रत्यय के ही प्राणी विशुद्धि को प्राप्त होते हैं। न आत्मा कुछ करती है और न पर कुछ करता है, न पुरुषकार है, न बल है, न वीर्य है, न पुरुषस्ताम है, न पुरुषपराक्रम है। सभी सत्त्व, सभी प्राण, सभी भूत और सभी जीव अवश हैं, अबल हैं, अवीर्य हैं। नियति के संग के भाव से परिणत होकर ६ प्रकार की अभिजातियों में सुख-दुःख का संवेदन करते हैं।"२६४ योगवासिष्ठ में नियति के सिद्धान्त को सृष्टि के प्रारम्भ से ही स्वीकार किया गया है। यथा आदिसर्गे हि नियतिर्भाववैचित्र्यमक्षयम्। अनेनेत्थं सदा भाव्यमिति संपाते परम्।।२६५ योगवासिष्ठ में प्रतिपादित है कि नियति का चारों ओर साम्राज्य है, यही कारण है कि जगत् में सारे व्यापार नियमित रूप से होते हुए दिखाई पड़ते हैं और प्रत्येक वस्तु का स्वभाव निश्चित जान पड़ता है। नियति की अटलता और निश्चितता को कोई भी खण्डित करने में समर्थ नहीं है। यहां तक कि सर्वज्ञ और बहुज्ञ प्रभु भी नियति को अन्यथा नहीं कर सकते सर्वज्ञोऽपि बहुज्ञोऽपि माधवोऽपि हरोऽपि च। अन्यथा नियतिं कर्तुं न शक्तः कश्चिदेव हि।।२६६ योगवासिष्ठकार ने पुरुषार्थ को भी नियति सापेक्ष प्रतिपादित किया है। नियति पुरुषार्थ के रूप से ही जगत् की नियामिका है- 'पौरुषेण रूपेण नियतिर्हि नियामिका। २६७ काश्मीर शैव दर्शन में ३६ तत्त्वों के अन्तर्गत नियति की भी गणना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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