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________________ २६९ नियतिवाद है, क्योंकि कारक व्यापार से निष्पादित कार्य से कर्त्ता अतिरिक्त होता है । उन निमित्त कारणों के होने से कर्ता ही कारण है, यह पक्ष सिद्ध नहीं होता है। नियति आदि से नियमित उपादान ही सत् कार्य में व्यापार करता है। यह नियति ही कार्य की निमित्त होती है। इस प्रकार आत्मवाद का निरसन होता है। १२७ (iv) दृष्टान्तमात्र से आत्मवाद को सिद्ध करना असंभव- आत्मवादी एक दृष्टान्त से अपने मत का प्रतिपादन करते हुए कहते हैं- ग्रामाध्यक्ष, देशाध्यक्ष और प्रधान सेनापति आदि से युक्त राजा, राज्य प्रशासन आदि कार्य में स्वतन्त्र भी होता है और अन्यथा भी करने में समर्थ होता है तथा जीव भी दृष्ट, अदृष्ट कारणों से युक्त होकर सुखादि कार्य को करने में स्वतंत्र भी होता है, परतंत्र भी होता है और अन्यथा करने में भी समर्थ होता है। १२८ राजा के दृष्टान्त से आत्मवाद का प्रतिपादन करना आकाश- कुसुम को सिद्ध करने के समान है। इस अभिप्राय से दिया गया सिद्धसेन का निम्न तर्क न दृष्टान्तीकृता शक्तेः स्वातन्त्र्यं प्रतिषिध्यते। अनिमित्तं निमित्तानि निमित्तानीत्यवारितम् ।।१२९ इस श्लोक के अन्तर्निहित भाव को प्रकाशित करते हुए टीकाकार कहते हैंराजा आदि का दृष्टान्त युक्ति रहित है । वादी को कर्ता का स्वातन्त्र्य स्वीकृत है, दृष्टान्त मात्र से सिद्ध की गई बात को निराकृत करने का प्रयास करना व्यर्थ है। क्योंकि वाङ्मात्र से किसी वस्तु को स्वीकार करने वाला वक्ता का मुख टेढा नहीं होता है, और न ही इस प्रकार से सिद्ध की गई वस्तु को सिद्धि की श्रेणि में लिया जा सकता है। अतः वास्तव में असिद्ध वस्तु का निषेध करना उपयुक्त नहीं है। वस्तुतः जीव के कर्ता के स्वातन्त्र्य का अभाव है। अनिमित्त का प्रतिषेध नहीं किया जाता, अपितु सनिमित्त का प्रतिषेध किया जाता है। सुख-दुःख की उत्पत्ति आत्मा की अपेक्षा से नहीं होती, अपितु दृष्ट- अदृष्ट (धर्म-अधर्म) के निमित्त से होती है। ये दृष्टअदृष्ट नियति से होते हैं। ' १३० इस प्रकार सिद्धसेनसूरि की नियतिद्वात्रिंशिका में नियतिवाद के संबंध में विभिन्न तथ्य प्रकट हुए हैं। हरिभदसूरिकृत शास्त्रवार्ता समुच्चय में नियतिवाद शास्त्रवार्ता समुच्चय में मूर्धन्य दार्शनिक हरिभद्रसूरि (८वीं शती) ने विभिन्न युक्तियों से नियतिवाद का उपस्थापन किया है। इनके टीकाकार यशोविजय ने अपनी तीक्ष्ण मति से उन सारगर्भित युक्तियों को सुगम बनाकर प्रस्तुत किया है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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