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नियतिवाद २६७ होने से उसके स्वरूप की चर्चा नहीं की, किन्तु नियतिवाद के अनुसार अनुमान प्रमाण के स्वरूप का प्रतिपादन किया है
अनुमानं मनोवृत्तिरन्वयनिश्चयात्मिका । त्रैकाल्यांगादिवृत्तान्ता हेतुरव्यभिचारतः ।।११९
अर्थात् अन्वय-निश्चयात्मिका मनोवृत्ति ही अनुमान है। वह भूत-भ - भविष्यवर्तमान तीनों कालों का अंग बनती है तथा साध्य में भी लागू होती है। अव्यभिचार के कारण हेतु से साध्य का ज्ञान होता है। यह ही अनुमान है।
२. कर्तृत्ववाद (आत्मवाद) के खण्डन में नियतिवाद का प्रतिपादन
नियति द्वात्रिंशिका के गुजराती अनुवादक एवं विवरणकार मुनि श्री भुवनचन्द्र जी ने उल्लेख किया है कि आचार्य सिद्धसेन दिवाकर के समय नियतिवादी अनात्मवादी बन गए थे। १२० यही कारण है कि आचार्य सिद्धसेन द्वारा नियति द्वात्रिंशिका में आत्मवाद का निरसन करते हुए नियतिवाद के स्वरूप का निरूपण किया गया। आत्मवाद के खण्डन के साथ जो नियतिवाद का स्वरूप अंकित है, उसे यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है
(i) शरीर आदि का कर्ता आत्मा नहीं
आत्मवाद का मत है- आत्मा ही सब कुछ करता है। आत्मा ही शरीर, इन्द्रिय वृत्ति से उत्पन्न सुख-दुःख आदि में स्वतन्त्र रूप से कारण है। इस हेतु का आचार्य सिद्धसेन खण्डन करते हुए कहते हैं
शरीरेन्द्रियनिष्पत्तौ यो नाम स्वयमप्रभुः ।
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तस्य कः कर्तृवादोऽस्तु तदायत्तासु वृत्तिषु ।।
अर्थात् शरीर और इन्द्रिय की निष्पत्ति में जो स्वयं असमर्थ है, वह आत्मा कर्ता कैसे हो सकता है? यानी नहीं हो सकता।
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टीकाकार ने इस तर्क का विस्तारित रूप प्रस्तुत करते हुए कहाअतिसन्निकट और अत्यन्त उपकारी शरीर का आत्मा कर्त्ता नहीं है और न ही इन्द्रियों के निर्माण का हेतु है। आत्मा के अतिरिक्त ईश्वर, काल, दृष्ट आदि भी शरीर के अंग-प्रत्यंग के स्वरूप की उत्पत्ति में सहायक नहीं बनते। अपितु नियति के माहात्म्य से ही भ्रूण वीर्य खून के संयोग से उत्पन्न बुबुद्, कलल (भ्रूण की अवस्थाओं के नाम) आदि अवस्थाओं में परिणत होकर हस्त-पाद- मस्तक आदि से निष्पन्न होता है। नियति के कारण ही मनुज देव पक्षी आदि विलक्षण जाति शरीर में उत्पन्न होती है। १२२
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