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नियतिवाद २६५ अर्थात् जैसे सूर्य के उदित होने पर पंकज स्वयं विकसित हो जाता है। वहाँ कौन कहता है कि हे सूर्य ! तू इस कमल को विकसित कर। अथवा हे कमल ! तू सूर्योदय होने से विकसित हो जा। जैसे यह प्राकृतिक व्यवस्था स्वभाव से नियत है वैसे ही ज्ञान स्वभाव से नियत है। विशिष्ट जाति के कुलीन लोग पूर्वागम आदि से 'इस वाक्य का यह अर्थ है' और 'इसका यह अभिप्राय है' किसी प्रकार के उपदेश के बिना ही स्वभाव से वस्तु तत्त्व को जान लेते हैं। इनका यह स्वभाव नियति के बल से होता है।११२ इस प्रकार का विवेचन टीकाकार आचार्य विजयलावण्यसूरि करते हैं।
(vii) उच्चकुलीनों का स्वभाव नियति से नियत- प्रथम श्लोक में 'अभिजाति स्वभाव' का नाम निर्देश किया है, जबकि इस श्लोक में सिद्धसेन ने उच्चकुलीन व्यक्ति के स्वभाव को विस्तार से प्रतिपादित किया है
समानाभिजनेष्वेव गुरुगौरवमानिनः ।
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स्वभावमधिगच्छन्ति न ह्यग्निः सममिध्यति। ।
टीकाकार कहते हैं कि अग्नि में दाहक भाव समान रूप से है, फिर भी वह सबको समान रूप से नहीं जलाती । दाह्य और अदाह्य वस्तु के ढेर में अग्नि दाह्य ईंधन को ही जाती है, अदाह्य को नहीं। इस स्वभाव में नियति कारण है । ११४ उसी प्रकार उच्च कुल वंश में उत्पन्न होने वाले ही श्रेष्ठ धर्म का उपदेश करने वाले और महनीय चारित्र, पूज्यतत्त्व को मानने वाले होते हैं। ये समभाव ये समदृष्टि होकर व्यवहार करते हैं, विषमदृष्टि बनकर नहीं । उच्चकुलीन व्यक्तियों का यह स्वभाव नियति से होता है । ११५
(viii) नियतिवादी द्वारा मान्य सृष्टि का स्वरूप- सुर-असुर और मानव की उत्पत्ति के संबंध में नियतिवादी की क्या मान्यता है तथा उनके अनुसार सृष्टि का स्वरूप कैसा है आदि बातों की जानकारी देते हुए सिद्धसेन ने 'नियति द्वात्रिंशिका' के इस श्लोक में कहा है
सुरादिक्रम एकेषां मानसा ह्युत्क्रमक्रमात्।
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सुख-दुःखविकल्पाच्च खण्डिर्यानोऽभिजातयः । ।
टीकाकार इस श्लोक पर टीका करते हुए लिखते हैं- कुछ आचार्यों के मत में सुर के बाद असुर हुए और किसी के अनुसार असुर के बाद सुर हुए। मन से मानव उत्पन्न होते हैं। ब्रह्मा अपनी इच्छानुसार क्रम का उल्लंघन कर प्रजा (जीवों) को उत्पन्न करता है। देवताओं को सुख ही होता है, नारकों को दुःख ही होता है और
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