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________________ नियतिवाद २६३ (ii) बुद्धि के धर्मादि आठ अंग और नियति- सांख्य द्वारा मान्य बुद्धि के आठ अंग को आचार्य विजयलावण्यसूरि परिभाषित करते हुए कहते हैं- बुद्धि के आठ अंग है-धर्म, अधर्म, ज्ञान, अज्ञान, वैराग्य, अवैराग्य, ऐश्वर्य और अनैश्वर्य। जिन प्रतिमादि को देखकर या स्पर्श कर धर्म होता है। परस्त्री को देखकर अधर्म होता है। गुण (सत्त्व-रज-तम) से युक्त चक्षु आदि इन्द्रिय से ज्ञान उत्पन्न होता है। दोष युक्त चक्षु होने पर विपर्यय, संशय आदि अज्ञान उत्पन्न होते हैं। दुःखी एवं संसार में भटकते प्राणियों को देखकर वैराग्य उत्पन्न होता है। विषय-लोलुपता से युक्त चक्षु आदि इन्द्रिय से उत्पन्न दर्शन से अवैराग्य होता है। इसी प्रकार साधु-दर्शन और उनकी सेवा करने से अष्टविध ऐश्वर्य होता है। दुष्ट जनों के दर्शन- स्पर्श से अनैश्वर्य उत्पन्न होता है। ___ इनमें धर्म का अधर्म के साथ, ज्ञान का अज्ञान के साथ, वैराग्य का अवैराग्य के साथ और ऐश्वर्य का अनैश्वर्य के साथ विरोध है। ये एक-दूसरे के विरोध से उत्पन्न नहीं होते हैं। इस बात को श्लोकाबद्ध करते हुए दिवाकर जी लिखते हैं'धर्माद्यष्टांगता बुद्धेर्न विरोधकृते च यैः।१०° टीकाकार ने इस श्लोक पर टीका करते हुए धर्मादि अष्टांगता को सत्त्व-रज-तम गुणों द्वारा नियति से नियमित स्वीकार किया है- 'यैः सत्त्वरजस्तमोभिर्गुणैर्नियतिनियमितैः धर्माद्याष्टांगता। १०१ (iii) नियतिवाद में जीव का स्वरूप- नियतिवादी के मत में चैतन्य या जीव के स्वरूप का प्रतिपादन करते हुए सिद्धसेन लिखते हैं- 'चैतन्यमपि नः सत्त्वो मोहादिज्ञानलक्षण: १०२ इस पर आचार्य विजयलावण्यसूरि टीका करते हुए कहते हैंनियतिवादी नित्य चैतन्य स्वरूप के अतिरिक्त आत्मा को स्वीकार नहीं करते, किन्तु क्रोध-मोह-लोभ आदि ज्ञानलक्षण रूप स्वभाव जिसका है उसको चैतन्य मानते हैं। इस मोहादिज्ञानस्वरूप चैतन्य को सत्त्व कहा है। जिसका चैतन्य आदि कारण है, वह तत्-तत् चैतन्य पूर्व-पूर्व चैतन्य का कारण होता है, इस प्रकार सत् होता है। पूर्वापर के चैतन्य तत्सदृश और तत्जातीय होते हैं। चैतन्य सम्यक् रूप से पूर्व में अपर भाव की कल्पना करता है और उस संकल्प से अपर भाव की रचना होती है। मोहादि ज्ञान स्वरूप पूर्व-पूर्व चैतन्य उत्तर-उत्तर चैतन्य का कारण होता है। पूर्व और अपर का संकलन या शामिल रूप एक चैतन्य का स्वरूप बनता है।०३ 'जीव के स्वरूप' के संबंध में मुनिश्री भुवनचन्द्र जी अपने मन्तव्य को इस प्रकार प्रस्तुत करते हैं- 'चैतन्य से तात्पर्य है भान, मोह, इच्छा, विचार आदि का संवेदन। चैतन्य एक सत्त्व है। सामान्य रीति से सत्त्व का अर्थ जीव है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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