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________________ २५४ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण अर्थात् “यह वस्तु इस प्रकार का व्यवहार करेगी" अथवा "यह ऐसी है"या नियम अटल है और अवश्य होने वाला है। इसका उल्लंघन रुद्रादि देवता तक भी नहीं कर सकते। कोई भी चाहे वह शिव हो अथवा विष्णु, चाहे सर्वज्ञ हो अथवा बहुत बड़ा ज्ञानी हो- नियति को नहीं बदल सकता। सृष्टि के आदि में जो रचना जिस नियम से होने लगती है वह सदा उसी नियम के अनुसार चलती है। महाशिव तक इस नियम से नियन्त्रित होते हैं। इसका नाम इसी कारण से नियति है कि तृण से लेकर ब्रह्मा तक का व्यवहार इसके द्वारा नियन्त्रित होता है। योगवासिष्ठकार पुरुषार्थ को भी नियति सापेक्ष बतलाते हैं पौरुषं न परित्याज्यमेतामाश्रित्य धीमता। पौरुषेण रूपेण नियतिर्हि नियामिका।। बुद्धिमान आदमी को पुरुषार्थ का कभी त्याग नहीं करना चाहिए। नियति पुरुषार्थ के रूप से ही जगत् की नियंत्रणा करती है। अर्थात् पुरुषार्थ द्वारा ही नियति सफल होती है। पुरुषार्थ और नियति में कोई विरोध नहीं है, अपितु पुरुषार्थ द्वारा फल की प्राप्ति होती है, यह भी नियति का ही एक अंग है। यदि उचित कारण पुरुषार्थ द्वारा उपस्थित नहीं किये जायेंगे तो इच्छित फल प्राप्त नहीं हो सकेंगे। कभी-कभी ऐसी स्थितियाँ बनती हैं कि प्रबल पुरुषार्थ द्वारा नियति नष्ट कर दी जाती है, क्योंकि कार्य का वास्तविक कर्ता जीव का संकल्प है, न कि नियति। नियति तो नियमित रूप से प्रकट होने का नाम है। नियति सृष्टि का नियम है, सृष्टि करने वाली नहीं है। इस अभिप्राय से नियतिवाद के संबंध में योगवासिष्ठकार लिखते हैं नियतिं यादृशीमेतत्संकल्पयति सा तथा। नियतानियताक्रांश्चिदर्थाननियतानपि।।७२ करोति चित्तं तेनैतच्चित्तं नियतियोजकम्। नियत्यां नियतिं कुर्वन्कदाचित्स्वार्थनामिकाम्।।७३ जीवो हि पुरुषो जातः पौरुषेण स यद्यथा।" संकल्पयति लोकेऽस्मिन्तत्तथा तस्य नान्यथा।।७५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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