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नियतिवाद २३९ 'नियति' शब्द की व्याख्या की है। 'शक्तो न कोऽपि भवितव्यविलंघनायाम्' अर्थात् भवितव्यता का उल्लंघन करने का सामर्थ्य किसी में नहीं है- ऐसा कल्हण का मानना है।
नियति के अभिप्राय में संस्कृत युग में भवितव्यता शब्द अधिक प्रचलन में था, ऐसा संस्कृत ग्रन्थों में बहुलता से प्रयुक्त भवितव्य शब्द प्रतीति कराता है। शाकुन्तलम् की कुछ सूक्तियाँ नियति के संबंध में अत्यधिक लोकप्रिय हैं'भवितव्यानां द्वाराणि भवन्ति सर्वत्र', 'भवितव्यता खलु बलवती'।° पंचतन्त्र और हितोपदेश में भवितव्यता को अटल बताया गया है। संस्कृत साहित्य में नियति के लिए दैव, भवितव्यता, भाग्य और विधि शब्दों के प्रयोग देखे जाते हैं।
___दार्शनिक साहित्य के अन्तर्गत मुख्य रूप से जैन और बौद्ध ग्रन्थों में ही नियति की चर्चा समपलब्ध है। शैव दर्शन में नियति को एक तत्त्व स्वीकार किया गया है। योगवासिष्ठ में नियति के पर्याय माने जाने वाले दैव और नियति का पृथक्-पृथक् स्वरूप प्रतिपादित हुआ है। इस ग्रन्थ में 'नियति' कार्य एवं पदार्थों के स्वभाव की निश्चितता या भवितव्यता के रूप में तथा 'दैव' पूर्वकृत कर्म के रूप में प्रतिष्ठित हुआ है। यहाँ नियति के साथ पुरुषार्थ का योग मानते हुए नियतिवाद का निरसन भी किया गया है। 'नियतिसंगतिभावपरिणता छस्वेवाभिजातीसु सुखदुक्खं पटिसंवेदेन्ति' १२ अर्थात् नियति के संग के भाव से परिणत होकर ६ प्रकार की अभिजातियों में सुखदुःख का संवेदन करते हैं। इन भावों से संवलित बौद्ध त्रिपिटक में दीघनिकाय के प्रथम भाग में मंखलि गोशालक का मत प्रस्तुत हुआ है। भगवान महावीर और बुद्ध के समय में आजीवक मत प्रचलित था और उसका प्रणेता मंखलि गोशालक था। चूंकि ये मतावलम्बी सभी कार्य नियतिजन्य स्वीकार करते थे, अत: नियतिवादी के नाम से पहचाने जाने लगे।
आगम युग और वैदिक काल में नियति के सदृश विभिन्न कारणता के सिद्धान्त प्रचलन में थे, जिनका उल्लेख प्रश्नव्याकरण सूत्र में 'मृषावाद'९३ के अन्तर्गत तथा श्वेताश्वतरोपनिषद् में प्राप्त होता है। जो सिद्धान्त अधिक विकसित हुए, उनके ही पृथक् ग्रन्थ रचे गए। किन्तु वर्तमान में वे प्राप्त नहीं होते हैं। साथ में इन ग्रन्थों के रचयिता के नाम भी लुप्त हो गए। जैसे नियति को कारण मानने वाले आजीवक मतावलम्बी थे, संभावना है कि वैसे ही कालवाद, स्वभाववाद सिद्धान्त के मतावलम्बी रहे होंगे। चूंकि इनकी परम्परा नष्ट हो गई तो ये सिद्धान्त ही उन मतावलम्बियों की पहचान बन गए। मत का रूपान्तरण सिद्धान्त में होने से आजीवक मत भी नियतिवाद के नाम से दार्शनिक जगत में प्रसिद्ध हो गया।
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