SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 263
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २०२ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण जाति स्वभाव - पादप, पशु, पक्षी की विभिन्न जातियों में जातिगत विशेषताएँ होती हैं, वे जाति स्वभाव कहलाती हैं। काँटों में तीक्ष्णता, फूलों में कोमलता, मोर के पंखों में सुन्दरता, कोकिल के गान में मधुरता, बया की घोंसला बनाने में दक्षता आदि विश्व की विचित्रता जातिगत स्वभाव के कारण है। यही कारण है कि तोतों को पढ़ाना संभव है, गधों को नहीं। काल स्वभाव - काल भेद के कारण स्वभाव में भी भेद संभव हो जाता है। सूर्योदय के समय कमल का खिलना और सूर्यास्त के समय बन्द होना, कालगत स्वभाव है। पहले आरे के समय पृथ्वी जैसी सुन्दर थी वैसी सुन्दर दूसरे आरे में नहीं रहती। मानव की लम्बाई भी काल के प्रभाव से कम होती है। तीसरे और चौथै आरे में जन्मा व्यक्ति मोक्ष जा सकता है, किन्तु पाँचवें आरे में जन्मा व्यक्ति मोक्ष नहीं जा सकता। यह सब कालगत स्वभाव के नियमन से ही होता है। इस प्रकार दिगम्बर एवं श्वेताम्बर दोनों जैन परम्पराओं में स्वभाव का निरूपण हुआ है। षड्द्रव्यों का अपना स्वभाव है यह सब अंगीकार करते हैं, वह सभी पदार्थों और कार्यों का नियामक भी है। द्रव्य और पर्याय के आधार पर वे सामान्य और विशेष स्वभावों का निरूपण भी करते हैं। पर्याय को स्वभाव और विभाव पर्याय के रूप में विभक्त करते हैं तथा वस्तु, देश, जाति एवं कालगत स्वभाव का प्रतिपादन करते हैं। निष्कर्ष - कारण- कार्य सिद्धान्त की व्याख्या में स्वभाववाद का भी अपना स्थान रहा। स्वभाववाद एक प्राचीन सिद्धान्त है। जिसके अनुसार समस्त कार्यों का कारण स्वभाव है। स्वभाववादी कहते हैं कि संसार में स्वभाव के अतिरिक्त कोई भी कारण नहीं है, जिससे कार्य निष्पन्न होता हो। काँटों की तीक्ष्णता, मृगों और पक्षियों का विचित्र वर्ण आदि कार्य स्वभावजन्य है। सभी कार्य स्वभाव से जन्य होते हैं। स्वभाववाद भी कालवाद की भाँति प्राचीन है। वेद में स्वभाववाद का स्पष्ट उल्लेख प्राप्त नहीं होता किन्तु नासदीय सूक्त के अन्तर्गत सृष्टि विषयक जिन विभिन्न मतों का उल्लेख हुआ है, उनके आधार पर पं. मधुसूदन ओझा ने दश वादों का उत्थापन किया है। इनमें एक अपरवाद है। अपर का अर्थ पं. ओझा ने अ-पर अर्थात् स्व करते हुए अपरवाद को स्वभाववाद के रूप में प्रतिष्ठित किया है। उन्होंने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy