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________________ xxiv काल को ही एकान्त कारण मानने का जैनदार्शनिक खण्डन करते हैं, किन्तु उसकी कथंचित् कारणता उन्हें स्वीकार्य है। जैनदर्शन में प्रत्येक द्रव्य के पर्यायपरिणमन में काल की कारणता अंगीकार की गई है। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय एवं पुद्गलास्तिकाय के पर्याय-परिणमन में काल प्रमुख उदासीन निमित्त कारण है। यही नहीं सभी द्रव्यों का वर्तन काल से ही सम्भव होता है। क्रिया एवं ज्येष्ठ-कनिष्ठ का बोध भी काल के बिना सम्भव नहीं। काललब्धि को मोक्ष में भी हेतु माना गया है। कर्मसिद्धान्त में अबाधाकाल की अवधारणा भी काल की कारणता का द्योतन करती है। जैनदर्शन में काल के स्वरूप एवं कारणता की चर्चा पूर्व में भी की जा चुकी है। स्वभाववाद एवं जैनदर्शन में उसकी कथंचित् कारणता स्वभाववाद के अनुसार सभी कार्य स्वभावजन्य होते हैं। कांटों की तीक्ष्णता, मृगों और पक्षियों के विचित्र वर्ण एवं स्वरूप स्वभाव से होते हैं। स्वभाववाद का वेदों में सीधा उल्लेख नहीं है, किन्तु वेद व्याख्याकार पं. मधुसूदन ओझा ने नासदीयसूक्त के आधार पर दस वादों का स्थापन किया है। इन दस वादों के अन्तर्गत अपरवाद को स्वभाववाद कहा है। वे "अ पर" का अर्थ "स्व"(अ+पर) करते हैं तथा स्वभाववाद को चार रूपों में प्रस्तुत करते हैं-(१)परिणामवाद (२) यदृच्छावाद (३) नियतिवाद (४) पौरुषी प्रकृतिवाद।' स्वभाव से होने वाला परिणमन “परिणामवाद" कहा गया है। उदाहरण के लिए अग्नि की ज्वाला से ताप और प्रकाश स्वतः होते हैं। जल में शीतलता और अन्न-जल से तृप्ति स्वभावतः होती है। यदृच्छावाद को "आकस्मिकवाद" भी कहा जाता है। यह एक पृथक् विचारधारा के रूप में प्रचलित रहा, किन्तु पं. ओझा ने इसे स्वभाववाद का ही एक प्रकार स्वीकार किया है। नियतिवाद को भी पं. ओझा ने स्वभाववाद का अंग माना है। प्राचीनकाल में भी तिलों से तेल होता था, आज भी होता है और भविष्य में भी होता रहेगा, यह नियति एक स्वभाव है। प्रकृतिवाद भी स्वभाववाद है क्योंकि त्रिगुणात्मिकता प्रकृति में स्वभाव से परिणमन होता है। उन्होंने स्वभाव का सम्बन्ध प्रकृतिवाद से माना है तथा पुरुष को स्वभावातीत स्वीकार किया है। पदार्थों की नियत शक्ति का नाम स्वभाव है। जैसे अग्नि का स्वभाव है उष्णता-"स्वभावो नाम पदार्थानां प्रतिनियता शक्तिः स्वभावमेतं परिणाममेके प्राहुर्यदृच्छां नियतिं तथैके। स्यात् पौरुषी प्रकृतिस्तदित्थं स्वभाववादस्य गतिश्चतुर्धा।। - अपरवाद, मधुसूदन ओझा शोध प्रकोष्ठ, जोधपुर, लोकायतवाद अधिकरण, श्लोक ६, पृ० २ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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