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________________ १७४ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण __ स्वभाववादी अभाव से घटोत्पत्ति बताते हुए कहते हैं कि घट सम्बन्धी अभाव मिट्टी का पिंड रूप है। मिट्टी के पिंड रूप अभाव से ही घट उत्पन्न होता है। इसलिए 'अभाव से वस्तु उत्पन्न नहीं होती' यह बात असिद्ध है।१६२ आचार्य कहते हैं-एकान्त रूप से कोई वस्तु तुच्छ(असत्) स्वरूप वाली नहीं होती, क्योंकि उसका स्वरूप से तो भाव होता ही है। इसलिए पूर्वोक्त दोष को कोई अवकाश नहीं है। चूंकि भाव रूप से अभाव रूप की उत्पत्ति नहीं होती और अभाव से भाव की उत्पत्ति नहीं होती, अत: मिट्टी रूप भाव जो घटस्वरूप अभाव से युक्त है उससे घट की उत्पत्ति संभव नहीं बनती। स्वभाववादी शंका करते हैं कि इस भाव और अभाव के बीच में कोई विरोध दोष नहीं है क्योंकि मिट्टी में स्वरूप की अपेक्षा से भावरूपता है और पररूप की अपेक्षा से अभावरूपता है। पुनः उत्तर देते हैं कि यदि आप मृत्पिण्ड में स्वरूप से भाव-स्वभाव और पररूप से अभाव-स्वभाव दोनों को एक साथ विलक्षण रूप में स्वीकार करते हो तो मृत्पिण्ड रूप अभाव में विचित्रता संभव है।१६३ - स्वभाव को अभाव अनेक रूप भी नहीं माना जा सकता है, क्योंकि जो अनेक रूप होता है, उसका लोक में अभाव नहीं देखा जाता। भाव में ही घट, पट, कट, शकट आदि के रूप में विचित्रता दिखाई देती है। यदि अभाव में विचित्रता स्वीकार करते हैं तो वास्तव में अभाव के रूप में नामान्तर से उसे भाव रूप स्वीकार करते हैं। अर्थक्रिया के सामर्थ्यरूप स्वभावभेद के बिना वस्तु में विचित्रता संगत नहीं ठहरती क्योंकि सभी वस्तुओं की अर्थक्रिया भिन्न भिन्न होती है, जैसे घट और पट की अर्थक्रिया में भिन्नता। यदि अभाव में अर्थक्रिया मानते हो तो वह ठीक नहीं है क्योंकि अर्थक्रियाकारिता भाव मात्र का लक्षण है। अत: भाव को स्वीकार करने पर ही विभेदता सम्भव है। इस प्रकार स्वभाव को अभावात्मक नहीं माना जा सकता।१६४ स्वभाव को भावरूप मानने पर उसकी जैनदर्शन में मान्य कर्म से कोई भिन्नता नहीं रह जाती है। अर्थात् आपने स्वभाव को मूर्त,विचित्र भाव रूप स्वीकार किया है तो वह कर्म रूप ही है।१६५ अब प्रश्न यह होता है कि यह भाव रूप स्वभाव कारणगत है या कार्यगत? यह स्वभाव कार्यगत नहीं हो सकता,क्योंकि तब स्वभाव की हेतुता ही निवृत्त हो जाएगी। उत्पन्न अवस्था में वस्तु कार्य कहलाती है, अनुत्पन्न अवस्था में नहीं। जो वस्तु जिस अप्राप्त सत्ता को प्राप्त कराती है, वह वस्तु उसका हेतु कहलाती है। जो कार्य सत्ता को प्राप्त नहीं होता है अर्थात् असत् अवस्था में होता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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