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________________ १७२ जैनदर्शन में कारण- कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण अकारण होती है तो परभव में जीव की सदृशता कैसी हो जाती है? यदि वह सदृशता अकारण होती है तो विसदृशता भी अकारण ही हो जाएगी। इस प्रकार अकारण ही आकस्मिक रूप से भवविच्छित्ति होने का प्रसंग आ जाएगा।' १५३ अतः गर्भादि अवस्था में कर्म की कारणता घटित होने से अकारणता को स्वभाव नहीं माना जा सकता । ३. स्वभाव वस्तु का धर्म भी नहीं - स्वभाव को वस्तु का धर्म मानना भी ठीक नहीं है, क्योंकि वस्तु का धर्म उत्पाद-व्यय- ध्रौव्यात्मक होने से सदा एकरूप नहीं रहता। वस्तु की नीलादि पर्यायों की परिणमनधर्मिता प्रत्यक्षसिद्ध है । १५४ यदि स्वभाव को वस्तु का धर्म माना जाए तो प्रश्न होगा कि वह आत्मा का धर्म है या वस्तु का? यदि वह ज्ञानादि के समान आत्मा का धर्म बन जाएगा तो वह आकाशादि के समान अमूर्त होने के कारण शरीर का हेतु नहीं बन सकता। यदि उसे ( स्वभाव को ) पुल का धर्म मानें तो प्रकारान्तर से कर्म को ही स्वीकार करना होगा। १५५ हरिभद्रसूरि विरचित धर्मसंग्रहणि में स्वभावहेतुवाद का निरसन महान् जैन नैयायिक एवं आगम टीकाकार आचार्य हरिभद्रसूरि (७००- ७७० ई.) ने 'धर्मसंग्रहणि' ग्रन्थ में जगत् की विचित्रता एवं सुख-दुःख के अनुभव में स्वभाव को हेतु मानने वाले स्वभावहेतुवादियों ५६ का निरसन करते हुए स्वभाव के स्वरूप पर अनेक वैकल्पिक प्रश्नचिह्न खडे किए हैं। १. स्वभाव भाव रूप है या अभाव रूप है? २. स्वभाव भाव रूप में एक रूप है या अनेक रूप? ३. स्वभाव के अनेक रूप होने पर वह मूर्त है या अमूर्त? ४. स्वभाव के एक रूप होने पर नित्य है या अनित्य? ५. स्वभाव के अभाव रूप होने पर वह अनेक रूप है या एक रूप ? स्वभाववादियों से हरिभद्रसूरि ने प्रश्न किया है कि स्वभाव भाव रूप है या अभाव रूप? वे यदि इसे भाव रूप मानते हैं तो उनसे पुनः प्रश्न है कि वह अनेक रूप है या एक रूप ? १५७ स्वभाववादी के दोनों मत को खण्डित करते हुए हरिभद्र कहते हैं जइ ताव एगरूवो निच्चोऽनिच्चो य होज्ज? जड़ निच्चो, कह हेतु सो भावो? अह उ अणिच्चो ण एगो त्ति। अह चित्तो किं मुत्तो किं वाऽमुत्तो? जइ भवे मुत्तो । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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